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कविता--- सोन चिरैया ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया तुम जो आकर चुपचाप बैठ गयी हो मेरे इस जीवन की मुंडेर पर सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? और क्यों आई हो अचानक इस तरह मेरी ढलती उम्र के इस पड़ाव पर अब तो साँसों की बाती भी लपलपा कर कभी भी महाशून्य में विलीन होने को उद्दत है सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? तुम सच हो या कि हो कोई मीठा सा झूठ मेरी कोई अतृप्त कल्पना या कि हो कोई छलावा मृग मरीचिका ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? और क्यों आई हो? अचानक इस तरह मेरे जीवन की मुंडेर पर कहीं तुम मेरी गहरी नींद का कोई सुन्दर सपना तो नहीं कि अचानक जब भी आँखें खुलें तो न सामने तुम रहो और न ही वो सपना सब कुछ टूट कर इस कदर बिखर जाये कि उभर आयें   दिलो दिमाग पर फिर से कभी न भरने वाली कई और गहरी और कभी न भरने वाली खरोंचें जानती हो समय के क्रूर थपेड़ों से लगातार लहूलुहान हुआ मैं अब कोई भी नया ज़ख्म झेल नहीं पाऊंगा ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो?

व्यंग्य

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दो गधों की सैर वार्ता वे दो गधे थे । और दोनों अब जान-पहचान से आगे बढ़ कर अच्छे दोस्त बन चुके थे । दोनों दिन भर लादी लादते । अपने-अपने मालिक की चाकरी करते । और शाम को थोड़ा आराम करने के बाद जब उनके मालिक उन्हें घास चरने के लिए खुला छोड़ देते, तो वे अपने अपने जंजालों से पिंड छुड़ा कर घास भरे मैदानों की ओर सरपट भाग निकलते । इस तरह उनकी चराई भी हो जाती । सैर भी । और कुछ देर आपस में बात-चीत कर लेने से उनका मन हल्का भी हो जाता था । आज भी जब वे रोज़ की तरह मिले, तो रोज़ की औपचारिक की हाय-हैलो के बाद पहले वाले ने दूसरे से पूछा---“कैसे हो यार?” ---“ठीक ही हूँ । ” दूसरे ने रोज़ की तरह मुंह लटका कर जवाब दिया । ---“इसका मतलब है कि तुम अभी भी दुखी चल रहे हो?” ---“हाँ यार, क्या बताऊं? सब कुछ कर के देख लिया, पर मेरी ज़िंदगी में कोई बदलाव आ ही नहीं रहा । इस बीच ससुरे कितने घूरों के दिन बहुर गए, पर मेरी ज़िंदगी तो वैसी की वैसी ही है, बल्कि दिन पर दिन और खराब होती जा रही है । ---“तो भाग क्यों नहीं जाते? बहुत मालिक मिल जायेंगे । वैसे भी, आज कल मार्किट में गधों की कमी चल रही है । मालिक