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महामारियों का विश्व साहित्य और संस्कृति पर प्रभाव

दो हज़ार बीस और इक्कीस को कोरोना काल कहा जा सकता है. जैसे कि प्रकृति से लगातार की जा रही छेड़छाड़ , पर्यावरण को छिन्न-भिन्न करने की कारपोरेट कुचेष्टाएँ, विज्ञान, धर्म, सामाजिक तानाबाना, परिवार, मन-मस्तिष्क, चिकित्सा व्यवस्था की वास्तविक स्थिति और वायरसों के हमलों के सामने हमारी का साल "कोरोना" की महामारी का साल कहा जा सकता है. कई लोगों ने तो इसे "कोरोना काल" का नाम भी दे दिया है. अब आप इसे "कोरोना काल" कहें या फिर "महामारी का वर्ष", हक़ीकत यह है कि कोविड-19 की इस प्रलयंकारी बीमारी ने पूरी दुनिया में अब तक सवा नौ करोड़ लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है. बीस लाख से ऊपर लोगों की मौत हो चुकी है. खुद अपने देश में ही, तक़रीबन एक करोड़ लोग इस बीमारी से ग्रस्त हो चुके हैं और लगभग डेढ़ लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है. कहने को तो अब दुनिया के बड़े-बड़े देशों में इसका टीका (वैक्सीन) बन गया है, लेकिन वह कितना कारगर साबित होता है, यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा. पर भारत ने इस वैक्सीन को बनाकर लोगों तक पहुँचाने की दिशा में जो एक ऊंची छलांग लगाई है, वह क़ाबिले तारीफ़ ह
सूचना--- दोस्तों, आपको सूचित करते हुए खुशी हो रही है कि मैंने अपना एक "यू ट्यूब चैनल" शुरू किया है, जिसका नाम है "Tea With Arvind Kumar". इस चैनल में मैं विभिन्न क्षेत्रों की महान हस्तियों से उनकी जीवन यात्रा, रचना यात्रा, जीवन की उपलब्धियों और उनके क्षेत्र से जुड़े कई समसामयिक मुद्दों पर अंतरंग (बेबाकी से) बातचीत कर रहा हूँ. इसी क्रम में मैं साहित्य, रंगमंच, फिल्म, विज्ञान, चिकित्सा, मनोविज्ञान से जुड़े कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों से निरंतर साक्षात्कार नुमा बातचीत कर चुका हूँ. यहाँ कवि और कहानीकार अपनी रचनाओं का पाठ भी प्रस्तुत करते हैं और अपनी अब तक की जीवन यात्रा की कथा भी सुनाते हैं. मैं अब तक एक सौ तीस लोगों को बातचीत के लिए अपने मंच पर आमंत्रित कर चुका हूँ. और आगे भी कई प्रसिद्ध व चर्चित हस्तियों को आमंत्रित करने की योजना है. यही नहीं, मैं अपने इस चैनल पर अपनी खुद की रचनाओं (कविताओं, कहानियों और व्यंग्यों) का पाठ करने के साथ साथ दो सिरीज़ भी नियमित रूप से चला रहा हूँ. एक है "इफ़ेक्ट ऑफ़ पैनडेमिक ऑन वर्ल्ड लिटरेचर ऐंड कल्चर" और दूसरा है "ज़िंदगी एक, किस्स

कविता

मैं आऊँगा तुम्हारे पास मैं बार बार आऊँगा तुम्हारे पास तुम्हारी चौखट पर और चुपचाप फूलों की पंखुडियां बिखेर कर वापस चला जाऊँगा   हवाओं की तरह मैं आऊँगा तुम्हारी उदास तनहाइयों में सुनाऊँगा प्रेम कवितायेँ सह्लाऊंगा तुम्हारा सिर भर जाऊंगा तुम्हारी साँसों में और चुपके से बुहार कर ले जाऊंगा तुम्हारे सारे दुःख और आंसू अपने साथ   यूं ही अचानक तुम्हारी यादों में मैं बादलों की तरह आऊँगा और ठंढी छाँव बनकर तुम्हें गर्मी और उमस से बचाऊँगा   और बरस कर तुम्हारे मन-आँगन पर दूर बहुत दूर उड़ जाऊंगा   पूरे खिले हुए चाँद की तरह मैं बार बार आऊँगा तुम्हारे सपनों में तुम्हारे आसमान पर   और चांदनी की सौगात रख कर तुम्हारे सिरहाने चुपके से क्षितिज के पार चला जाऊँगा   यूं ही बार बार मैं आऊँगा तुम्हारे पास तुम्हे देखने क्योंकि तुमसे दूर, तुम्हें देखे बिना मैं रह नहीं पाऊँगा @अरविन्द कुमार  
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कविता--- सोन चिरैया ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया तुम जो आकर चुपचाप बैठ गयी हो मेरे इस जीवन की मुंडेर पर सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? और क्यों आई हो अचानक इस तरह मेरी ढलती उम्र के इस पड़ाव पर अब तो साँसों की बाती भी लपलपा कर कभी भी महाशून्य में विलीन होने को उद्दत है सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? तुम सच हो या कि हो कोई मीठा सा झूठ मेरी कोई अतृप्त कल्पना या कि हो कोई छलावा मृग मरीचिका ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? और क्यों आई हो? अचानक इस तरह मेरे जीवन की मुंडेर पर कहीं तुम मेरी गहरी नींद का कोई सुन्दर सपना तो नहीं कि अचानक जब भी आँखें खुलें तो न सामने तुम रहो और न ही वो सपना सब कुछ टूट कर इस कदर बिखर जाये कि उभर आयें   दिलो दिमाग पर फिर से कभी न भरने वाली कई और गहरी और कभी न भरने वाली खरोंचें जानती हो समय के क्रूर थपेड़ों से लगातार लहूलुहान हुआ मैं अब कोई भी नया ज़ख्म झेल नहीं पाऊंगा ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो?

व्यंग्य

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दो गधों की सैर वार्ता वे दो गधे थे । और दोनों अब जान-पहचान से आगे बढ़ कर अच्छे दोस्त बन चुके थे । दोनों दिन भर लादी लादते । अपने-अपने मालिक की चाकरी करते । और शाम को थोड़ा आराम करने के बाद जब उनके मालिक उन्हें घास चरने के लिए खुला छोड़ देते, तो वे अपने अपने जंजालों से पिंड छुड़ा कर घास भरे मैदानों की ओर सरपट भाग निकलते । इस तरह उनकी चराई भी हो जाती । सैर भी । और कुछ देर आपस में बात-चीत कर लेने से उनका मन हल्का भी हो जाता था । आज भी जब वे रोज़ की तरह मिले, तो रोज़ की औपचारिक की हाय-हैलो के बाद पहले वाले ने दूसरे से पूछा---“कैसे हो यार?” ---“ठीक ही हूँ । ” दूसरे ने रोज़ की तरह मुंह लटका कर जवाब दिया । ---“इसका मतलब है कि तुम अभी भी दुखी चल रहे हो?” ---“हाँ यार, क्या बताऊं? सब कुछ कर के देख लिया, पर मेरी ज़िंदगी में कोई बदलाव आ ही नहीं रहा । इस बीच ससुरे कितने घूरों के दिन बहुर गए, पर मेरी ज़िंदगी तो वैसी की वैसी ही है, बल्कि दिन पर दिन और खराब होती जा रही है । ---“तो भाग क्यों नहीं जाते? बहुत मालिक मिल जायेंगे । वैसे भी, आज कल मार्किट में गधों की कमी चल रही है । मालिक

कहानी

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प्यार, पुलिया और प्रमोशन (समापन किश्त) आज शाम को जब वह रोज़ की तरह आफ़िस से थक-हार कर घर पहुँचा, तो देखा कि वहां मुहल्ले वालों का मजमा लगा हुआ है। और रीना ने रो-रो कर पूरे घर को ही नहीं अड़ोस-पड़ोस को भी अपने सिर पर उठा रखा है। उसे देखते ही वह बिफर पड़ी---“देखा , तुम्हारी छूट का नतीज़ा।...कलमुंही चेहरे पर कालिख पोत कर भाग गयी।...उसी रामसुमेरवा के लौंडे के साथ।...बड़ी गर्मी सवार हो गयी थी।...मैं बार-बार कहती थी कि जल्दी से उसके हाँथ पीले कर दो।...लौंडिया के लक्षण ठीक नहीं हैं।...ज़रूर कोई गुल खिलाएगी।...पर तुमने मेरी एक न सुनी।...अब झेलो बदनामी।...नाते-रिश्तेदार और बिरादरी वाले सब तुम्हारे मुँह पर थूक रहे हैं। ... अरे खड़े-खड़े मुँह क्या देख रहे हो।...फ़ौरन थाने जाकर रपट लिखाओ।...अबहीं जादे दूर नहीं गये होंगे।...हरामी सब। … ” चीख-चीख कर वह अचानक ही ज़ोर-ज़ोर से छाती पीटने लगी। और देखते ही देखते एक कटे हुए पेड़ की तरह धड़ाम से गश खाकर गिर पड़ी। छोटकू अम्मा-अम्मा कह कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा---“तब से ऐसे ही कर रही है। बाबूजी कुछ कीजिए।”...किसी तरह पानी के छींटे मार-मार कर वह र