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कुल मिला कर "आरक्षण" एक बकवास फ़िल्म है

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वैसे तो आज कल की हिंदी फिल्मों पर चर्चा करना और उन पर कुछ भी लिखना अपना समय बर्बाद करना है, पर न चाहते हुए भी "आरक्षण" फ़िल्म पर टिप्पणी करने से मैं अपने आप को नहीं रोक पा रहा हूँ। पर इसकी वज़ह यह कत्तई नहीं है कि मैंने इस फ़िल्म से सामाजिक सरोकार की कोई बड़ी उम्मीद लगा रखी थी या कि मैं यह सोच रहा था कि शायद यह फ़िल्म अपने माध्यम से आज के युवा मनों में आरक्षण को लेकर चलने वाली तमाम उथल-पुथल को कोई तर्कसंगत दिशा देगी और जातिवाद की बढ़ती हुयी खाई को सामाजिक एवं राजनीतिक तौर पर पाटने के लिए अपनी सीमाओं में ही सही कोई सांकेतिक बौद्धिक हल सुझाएगी। और समाज में आरक्षण को लेकर नए सिरे से कोई वैज्ञानिक या जनपक्षीय बहस छिड़ जायेगी। आज की फिल्मों से इस तरह की कोई भी उम्मीद रखना कोरी बचपना ही नहीं बहुत बड़ी मूर्खता भी है यह मैं अच्छी तरह से जानता-समझता हूँ। अब चाहे उस फ़िल्म का निर्देशक प्रकाश झा ही क्यों न हो? वैसे भी, अब आज के प्रकाश झा पुराने "फोर्सेज आफ्टर दी स्टार्म" या "सोनल" जैसी डोकुमेंत्री या फिर "दामुल" जैसी फ़िल्म बनाने वाले प्रकाश झा तो हैं न