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फ़रवरी 1, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आख़िर इन विवादों की मंशा क्या है?----तीन

यह व्यक्तिगत नहीं विचारों की लड़ाई है कुछ लोग जन्म से ही अति-स्वछन्द होते हैं। सोच,समझ और विचारों में पूरी तरह से अराजक। ऐसे लोग नहीं चाहते की कभी कोई उनको टोके-टाके। उनके क्रिया-कलापों की आलोचना करे। ऐसे लोग मूलतः यथास्थितिवादी होते हैं।और देश व समाज के विकास में बाधक। वे नही चाहते कि कोई उनको रोके-टोके या उनकी ज़िंदगी और परिवेश को बदलने की कोशिश करे। पर ऐसे लोग अपनी तमाम सारी बौद्धिक संपन्नता के यह नहीं जानते कि प्रतिक्रियावादी व जनविरोधी ताकतें हमेशा ऐसे लोगों को न सिर्फ़ पुचकारती सहलाती रहती हैं, बल्कि उनकी निरीह शराफत को आसानी से अपने हितों के लिए इस्तेमाल भी कर लेतीं हैं। वर्गों में बँटे समाज में निरंतर चलनेवाले वर्ग-संघर्सों आप चाह कर भी तटस्थ नहीं रह सकते।आपको यह तय करना ही पड़ता है कि "बंधु आप आखिर किसकी ओर हैं"? वैसे भी व्यक्ति की तटस्थता या चुप्पी अंततः उसको जनता के दुश्मनों के ही पक्ष में ले जा कर खड़ा कर देती है। तमाम कलावादी या भाववादी लोग अपने जाने-अनजाने में समाज की प्रतिगामी ताकतों को ही बल प्रदान करतें हैं। यह एक सच्चाई है। ऐसे अति-स्वछन्द और तथ

आखिर इन विवादों की मंशा क्या है?---दो

प्रेमचंद नहीं तो फ़िर कौन ? रत्न कुमार संम्भारिया द्वारा प्रेमचंद की कहानी पूस की रात की चीड़-फाड़ और उसकी कमियों की तरफ़ इशारा करने का प्रयास सफल हो सकता था,यदि उन्होंने स्वस्थ नज़रिया, भाषा और शैली का इस्तेमाल किया होता.पर अपने निहायत ही अवैज्ञानिक व पूर्वाग्रहों से ग्रस्त समझ और प्रयासों के कारण वे न सिर्फ़ बुरी तरह से असफल हुए हैं, बल्कि बड़ी जल्दी ही अपनी बचकानी और बीमार मानसिकता को उजागर भी कर दिया है. वैसे भी, अक्सर अवैज्ञानिक स्थापनाओं के लिए विज्ञानं और सबूतों का ही सहारा लिया जाता है. यह हम रोज़ देखते हैं. भूत-पिशाचा या आत्मा-परमात्मा को सही साबित करने के लिए विज्ञान या परा-विज्ञान का ही इस्तेमाल किया जाता है. सवाल यह नहीं है कि प्रेमचंद को मौसम की जानकारी थी या नहीं. उनको किसानी आती थी या नहीं. या फ़िर वे गांधीवादी थे या नहीं. वे जेल गए थे कि नहीं. देखने और समझने वाली बात केवल यह है कि वे किसके लेखक थे ? उनहोंने अपनी कथा कहानियो में किसका दुःख दर्द उकेरा था ? और देश या समाज के प्रति उनका नज़रिया क्या था ? वे अपनी रचनाओं में जनता की तरफ़ थे या जनता के दुश्मनों की ओर ? दरअसल,

आख़िर इन विवादों की मंशा क्या है ?---एक

आज कल कई पुराने पिटे पिटाये जिन्नों (मुद्दों) को नए-नए चोले पहना कर फ़िर से बोतल से निकाल दिया गया है. और साहित्य के कुछ नए पुराने पुरोधा फ़िर से अपने अपने तर्क-वितर्क लेकर बहस के अखाड़े में उतर आए हैं. बहस जारी है . और लोग बाग़ इन हम्मामों में नंगे हो रहे हैं. वैसे देखें तो इन बहसों का कोई ख़ास मतलब नही है,पर साहित्य और संस्कृति के सुधि जनों का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे इसमे हस्तक्षेप अवश्य करें. नहीं तो, आने वाले दिनों में जन जीवन और समाज की तरह उन तमाम साहित्यिक मूल्यों और मानदंडों को भी विकृत कर दिया जाएगा,जिन पर न सिर्फ़ हमारा सहित्य,हमारी संस्कृति टिकी हुई है ,बल्कि जिनकी वजह से हमारा समाज भी जीवित व गतिशील है. आज अभी मैं एक अनजान से समीक्षक रत्न कुमार सांभरिया द्वारा उठाये गए सवाल या उनके द्वारा कथा सम्राट प्रेमचंद पर की गयी गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी पर अपनी बात रखूँगा. वे पूस की रात कहानी की चीड़-फाड़ करते हुए कहने की कोशिश करते हैं कि प्रेमचंद को न तो यथार्थ की समझ थी और न ही उनको किसानों, किसानी, देश और समाज से कोई लगाव. अपनी पूरी विद्वत्ता के ज़रिये उन्होंने प्रेमचंद को नीचा और