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दिसंबर 15, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कहानी--मौसम

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[अपनी कहानियों और नाटकों के लिए 1980 और 90 के दशक में चर्चित रहे कथाकार और रंगकर्मी अरविंद कुमार ने एक लंबे अंतराल के बाद चुप्पी तोड़ी है। उनका एक कहानी संग्रह "रात के खिलाफ' और नाटक "बोल री मछली कितना पानी' काफी पहले प्रकाशित हुआ था। इन दिनों मेरठ में रहते हैं।---"द पब्लिक एजेंडा"] पहाड़ों का मौसम भी बड़ा अजीब होता है. ठीक ज़िंदगी की तरह. अभी धूप, अभी बादल और अभी बरसात. कुछ देर पहले तक आप पसीने से तर बतर हो रहे होंगे, पर अचानक ही तेज़ बर्फीली हवाएं चलने लगेंगी . और आप ठिठुरने कांपने लगेंगे. शाम को आप देखेंगे कि मौसम एकदम खुला और साफ़ है, पर सुबह चरों तरफ सफ़ेद-सफ़ेद बर्फ के फाहे गिरते हुए नज़र आयेंगे. हमने भी जब सफ़र शुरू किया था तो आसमान बिलकुल साफ और चमकती धूप से लबरेज़ था, पर देखते ही देखते मौसम ने करवट ले ली. आसमान का रंग बदल गया . और हवा के तेज़ झोंको के साथ पानी गिरने लगा. ड्राईवर बहुत एक्सपर्ट था. वैसे भी पहाड़ी  सर्पीले और अंधे मोड़ों से भरे रास्तों के ड्राईवर प्रायः एक्सपर्ट ही होते हैं. काफी देर तक तो वह तूफानी हवाओं और घनी बौछारों को चीरता रहा. पर