यह सांस्कृतिक सन्नाटा चिंताजनक है--एक
पिछले दिनों मुझे एक नाटक देखने का अवसर मिला। नाटक तो खैर किसी और विषय पर एवं जैसा-तैसा था, पर उसमें एक पात्र था बुद्धिजीवी ! यद्यपि नाटक में उसे हास्य व व्यंग्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए रखा गया था, पर अनायास ही वह पात्र न सिर्फ आज की एक महत्वपूर्ण कड़ु़ई सच्चाई की ओर इशारा करता है, बल्कि जाने-अनजाने उस पर चोट भी करता है। नाटक का वह पात्र किसी भी घटना के बाद एक चिंतक की भाँति मंच पर आता है और घटना से अपनी पूरी निर्लिप्तता दिखाते हुए अपना परिचय कुछ इस तरह से देता है-''मैं एक बुद्धिजीवी हूँ। मेरा काम है, सोचना और केवल सोचना। इसलिए मैं सोचता हूँ और खूब-खूब सोचता हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचता हूँ। चाय पीने के पहले सोचता हूँ। चाय पीते हुए सिगरेट के धुएं के डूब कर सोचता हूँ। और खूब सोचता हूँ। मैं दिन भर नहाते-खाते-पीते और अपना काम धंधा करते (यानि की अपने और अपने परिवार के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते) हुए सोचता हूँ। रात को खाना खाने से पहले सोचता हूँ। खाना खाने के दौरान सोचता हूँ। बीवी व बच्चों के सवाल-जवाब पर हाँ-हूँ करते हुए सोचता हूँ। सोने से पहले भी मैं काफी देर तक सोचता हूँ।...