यह सांस्कृतिक सन्नाटा चिंताजनक है--दो
मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के बाद बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों की इस तरह की चुप्पी के चलते अब उन सारे लोगों व समूहों को भी, जो साध्वी-प्रज्ञा तथा पुरोहित प्रकरण के उजागर हो जाने से पहले कुंठाग्रस्त सकते में आ गये थे, यकायक एक ऐसा बड़ा मुद्दा मिल गया, जिससे उनकी सोच व उनके भीतर भरी-दबी जहरीली भॅड़ास खुलकर बाहर निकलने लगी। उनको लगा कि यही वह सुनहरा अवसर है, जब पाकिस्तान को पूरे विश्व समुदाय से काट कर पंगु बना दिया जाये। कई लोग तो सरकार पर दवाब भी डालने लगे कि वह तुरन्त पाकिस्तान पर हमला बोल दे। परन्तु आज के अधिकांश कवि, लेखकों एंव संस्कृतिकर्मियों को इस से क्या ? वे तो इन तमाम कडुवी सच्चाईयों से आँख मूँद कर काल्पनिक घटनाओं और मध्यवर्गीय कुंठाओं को ही अपनी कृतियों में उकेर रहें हैं। वे भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के इन्द्रजाल में फँस कर और इंडिया शाइनिंग और भारत निर्माण की तर्ज पर सिर्फ और सिर्फ शहरी विकास, अमीरों की अमीरी और मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग की विलासिता एवं यौन-ग्रन्थियों को ही घुमा-फिरा कर बार-बार पाठकों और दर्शको के सामने परोस रहें है। गरीबों की गरीबी और वंचितों के दुःख दर्द पर...