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मार्च 8, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अशिक्षा के अँधियारे के विरुद्ध

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आजकल से बीसेक साल पहले जब मैं स्कूल और कालेज में पढ़ा करता था, तब इम्तहान में नकल करने की पंरपरा नहीं थी। नकलचियों की संख्या कम हुआ करती थी। और छात्र-नौजवान ईमानदारी से अपनी अकल के आधार पर इम्तहान देने में विश्वास करते थे। और नकल करने वालों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा एवं उन्हें जलील किया किया जाता था। पर तब स्कूलों-कालेजों में पढ़ाई होती थी। अध्यापकगण कक्षाओं में पढ़ा-पढ़ा कर कचूमर निकाल देते थे। ट्यूशनों का इतना चलन नहीं था। अध्ययन-मनन-चिंतन का माहौल था। घर पर भी पढ़ाई को लेकर अक्सर पिटाई हो जाती थी। और हर वक्त यह हिदायतें दी जाती थीं, कि चाहे कुछ भी हो जाएं, फेल क्यों न हों, पर नकल कभी मत करना। तब न कहीं नकल विरोधी अध्यादेश था, न नकल रोकने के लिए उड़ाका दल थे। कक्ष निरीक्षक और प्रधानाचार्य का भय ही हमारे लिए काफी हुआ करता था। लेकिन तब विद्यालय वाकई विद्या मंदिर हुआ करते थे। अध्यापक गुरू थे। और शिक्षा ने व्यवसाय का रूप कत्तई नहीं अख्तियार किया था । पर अब परीक्षाओं में की प्रथा-सी चल पड़ी है। नकलचियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। नकल कराने के लिए एजेंसिया खुल गई हैं, जो ठेका लेकर नकल

आज कहाँ खड़ी हैं महिलायें--तीन

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आज भी हकीकत यही है कि दंगे हों तो कहर महिलाओं पर टूटता है। जातीय संघर्ष हो तो महिलाओं को भुगतना पड़ता हैं। आतंकवादियों का जुल्म बरसता है तो महिलाओं पर। पुलिस और सेना भी जब वहशी होती हैं तो भुगतती हैं महिलाएं। प्रेम प्रसंगों में भी प्रताड़ित महिलाएं ही होती है। यही नहीं, जब भारतीय संस्कृति के स्वयभू ठेकेदार अपनी तथाकथित संस्कृति की रक्षा में नैतिक पुलिस बन कर हिंसक होते हैं, तो सब से ज्यादे शिकार महिलायें ही होतीं हैं। चाहे वह हिन्दू धर्म हो या मुस्लिम, ईसाई हो या कि सिख धर्म, या चाहे कोई भी जाति हो या वर्ण हर जगह महिलाओं को ही बलि का बकरा बनाया जाता है। सारे नियम कानून और ढेरों पाबंदियाँ महिलाओं पर ही थोपी जाती हैं। पुरूष हर जगह उनसे ऊपर और आजाद होता है। दूसरी तरफ बाजार में जब खुलापन आता है, तो भी धड़ल्ले से महिलाएं और उनका शरीर ही बेचा और खरीदा जाता है। गरज यह कि सामंती मध्ययुगीन संस्कृति का बोलबाला हो या पश्चिमी अत्याधुनिक भोगवादी संस्कृति का वर्चस्व, शिकार महिलाओं को ही बनाया जाता हैं। चाहे दबाकर जोर जबर्दस्ती से या फिर फुसलाकर और चकाचैंध से भरी जिंदगी का लालच देकर। और हमारे देश में सा

आज कहाँ खड़ी हैं महिलायें--दो

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आज हम एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। चारो तरफ तीव्र हलचल, उठा-पटक, बहस-मुबाहिसा, संघर्ष और धुव्रीकरण का माहौल है। अभी कल तक जो था, वह आज नहीं है और आज जो है कि वह कल निश्चित ही नहीं रहेगा। घटनाएं इतनी तेजी से घट रही हैं, दृश्य-परिदृश्य इतनी तेजी से बदलता जा रहा है कि आने वाले कल के बारे में अनुमान करना कतई मुश्किल हो गया है। कंप्यूटर, अत्याधुनिक, तक्नालाजी , मुक्त बाजार, आयातित पश्चिमी पूँजी व संस्कृति और अब यह आर्थिक मंदी का भँवर और गोल और गहरा होता जा रहा है। मूल्य और मान्यताएं रोज-ब-रोज बदलती जा रही है। समय के इस नाजुक मोड़ पर कहाँ खड़े है हम ? कहाँ खड़ी हैं हमारी महिलाएं ? भारतीय नारी ? इसकी जाँच पड़ताल करने और इस संदर्भ में निणर्यात्मक बहुत कुछ ठोस करने की जरूरत आन पड़ी हैं। क्योंकि जब तक इस आधी आबादी से जुड़ी समस्याओं व त्रासदियों को हल नहीं कर लिया जाता, समाज की शक्लो सूरत को कतई नहीं बदला जा सकता। इधर-उधर से पैबंद लगाकर इसे सुधारने की लाख कोशिशें क्यों न कर ली जायें। अपने चारों तरफ आज हम निगाहें दौड़ाते हैं, तो पाते है कि हमारे यहाँ महिलाएं आज भी कमोबोश मध्ययुगीन सोव व संस्कृति तथ