आज कहाँ खड़ी हैं महिलायें--दो
आज हम एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। चारो तरफ तीव्र हलचल, उठा-पटक, बहस-मुबाहिसा, संघर्ष और धुव्रीकरण का माहौल है। अभी कल तक जो था, वह आज नहीं है और आज जो है कि वह कल निश्चित ही नहीं रहेगा। घटनाएं इतनी तेजी से घट रही हैं, दृश्य-परिदृश्य इतनी तेजी से बदलता जा रहा है कि आने वाले कल के बारे में अनुमान करना कतई मुश्किल हो गया है। कंप्यूटर, अत्याधुनिक, तक्नालाजी , मुक्त बाजार, आयातित पश्चिमी पूँजी व संस्कृति और अब यह आर्थिक मंदी का भँवर और गोल और गहरा होता जा रहा है। मूल्य और मान्यताएं रोज-ब-रोज बदलती जा रही है। समय के इस नाजुक मोड़ पर कहाँ खड़े है हम ? कहाँ खड़ी हैं हमारी महिलाएं ? भारतीय नारी ? इसकी जाँच पड़ताल करने और इस संदर्भ में निणर्यात्मक बहुत कुछ ठोस करने की जरूरत आन पड़ी हैं। क्योंकि जब तक इस आधी आबादी से जुड़ी समस्याओं व त्रासदियों को हल नहीं कर लिया जाता, समाज की शक्लो सूरत को कतई नहीं बदला जा सकता। इधर-उधर से पैबंद लगाकर इसे सुधारने की लाख कोशिशें क्यों न कर ली जायें।
अपने चारों तरफ आज हम निगाहें दौड़ाते हैं, तो पाते है कि हमारे यहाँ महिलाएं आज भी कमोबोश मध्ययुगीन सोव व संस्कृति तथा पतनशील, मुनाफाखोर, पूँजीवादी उपभोक्ता मूल्यों के पाटों में दबी पड़ी छटपटा रही हैं। शहरी अत्याधुनिक उच्च वर्ग की महिलाओं से लेकर दूर-दरार की गँवई-गाँव की महिलाएं तक पितृ-सत्तात्मक समाज-व्यवस्था के अंतर्विरोधों और दंशो को हर पल-हर दिन झेल रही हैं। कहीं वे यौन-उत्पीड़न की शिकार हैं, तो कहीं घर की चारदीवारी में कैद। पति को शारीरिक सुख देते हुए बच्चे पैदा करने की मशीन बनी, पति और बच्चों की देखभाल करने के तथाकथित फर्ज के बोझ तले पिस रही हैं। कहीं उन पर यौन-उन्मुक्तता की कुंठाएँ हावी हैं, तो कहीं वे कैरियर और अस्तित्व के लिए जूझती हुई मर-खप रही हैं या फिर मुनाफाखौर बाजार की माँगो के अनुसार खुले बाजार में वस्तु की तरह बिक रही हैं। उपेक्षा, उत्पीड़न, शोषण, दोहन, दमन और क्रय-विक्रय। यही कुछ आज भी उनकी नियति बनी हुई है।
बराबरी का हक, समानता का दर्जा, संवैधानिक अधिकार, महिला जागृति, महिला मंच, संगठन, महिला आंदोलन और महिलाओं के लिए राष्ट्रीय कमीशन आदि की चर्चाएँ तो खूब होती हैं, पर आज भी महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा बूढ़ी मान्यताओं, अनर्गल रूढ़ियों और अंधविश्वासों के घने दलदली जंगल में फंसा हुआ है। आज भी अपनी पहचान के लिए उसे हर स्तर पर जूझना पड़ता हैं, वरना बाप, भाई, पति और बेटे से ही आज भी उसकी पहचा है। अभी भी वह लगभग दोयम दर्जे की नागरिक है। शिक्षा, नौकरी, पद, प्रतिष्ठा और आर्थिक आजादी भी उसकी सामाजिक व घरेलू हैसियत में कोई खास फर्क नहीं ला पाये हैं, क्योंकि वहाँ भी उसे पति या किसी पुरूष की इच्छानुसार चलना, काम करना और निर्णय लेना पड़ता है। वह घर चलाने और पति को सहयोग देने के लिए नौकरी तो करती है, परन्तु उसे अपने कमाये हुए पैसों को खर्च करने तक की आजादी नहीं है। ऐसी महिलाओं की संख्या आज भी काफी हैं, जो पति से अधिक तन्ख्वाह पाने के बावजूद उनकी मर्जी की ही गुलाम हैं और यदा-कदा उनसे पिटती भी रहती हैं। यही नहीं, निम्न आय वर्ग की श्रमिक महिलाएं तो अधिक श्रम करने के बावजूद अपने सहकर्मी पुरूष श्रमिकों से कम मजदूरी पाती हैं। और अपने निकम्मे व शराबी पति से पिटने के लिए अभिशप्त हैं। यौन-शोषण तो खैर दोनों जगहों पर बराबर मात्रा में है।
महिलाओं के साथ छेड़खानी, दहेज-हत्या, विधवा-हत्या (सतीप्रथा) बेइज्जती और बलात्कार की घटनाएं दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही हैं। इधर महिलाओं को नंगा करके घुमाए जाने या उनके माथे पर गोदना गोदवाए जाने या थाने मे उनके साथ सामूहिक बलात्कार करने की घटनाओं में जो अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, उसे भी महिला उत्पीड़न के इसी परिप्रेक्ष्य में देखा-समझा चाहिए, जहाँ गर्भ में लिंग निर्धारित होते ही उनकी हत्या कर दी जाती है। आज भी यह धारणा आम है कि महिलाओं को दया, प्रेम, क्षमा, शर्म और हया की प्रतिमूर्ति बनकर घर की चार-दीवारी या पर्दें के भीतर ही रहना चाहिए। आज भी उन्हें पुरूषों की तुलना में कमजोर, हेय और दोयम दर्जे का मानकर मात्र भोग्या माना और समझा जाता है तथा उनकी बुद्धि, प्रतिभा, एकाग्रता, लगन, निष्ठा, जीजिविषा और कर्तव्यपरायणता की तुलना में (उनको नकार कर) अनके शरीर की खूबसूरती, मादकता, फीगर और सेक्स को ही महत्व दिया जाता हैं।
शेष फिर कभी--
(चित्र गूगल इमेज सर्च से साभार)
अपने चारों तरफ आज हम निगाहें दौड़ाते हैं, तो पाते है कि हमारे यहाँ महिलाएं आज भी कमोबोश मध्ययुगीन सोव व संस्कृति तथा पतनशील, मुनाफाखोर, पूँजीवादी उपभोक्ता मूल्यों के पाटों में दबी पड़ी छटपटा रही हैं। शहरी अत्याधुनिक उच्च वर्ग की महिलाओं से लेकर दूर-दरार की गँवई-गाँव की महिलाएं तक पितृ-सत्तात्मक समाज-व्यवस्था के अंतर्विरोधों और दंशो को हर पल-हर दिन झेल रही हैं। कहीं वे यौन-उत्पीड़न की शिकार हैं, तो कहीं घर की चारदीवारी में कैद। पति को शारीरिक सुख देते हुए बच्चे पैदा करने की मशीन बनी, पति और बच्चों की देखभाल करने के तथाकथित फर्ज के बोझ तले पिस रही हैं। कहीं उन पर यौन-उन्मुक्तता की कुंठाएँ हावी हैं, तो कहीं वे कैरियर और अस्तित्व के लिए जूझती हुई मर-खप रही हैं या फिर मुनाफाखौर बाजार की माँगो के अनुसार खुले बाजार में वस्तु की तरह बिक रही हैं। उपेक्षा, उत्पीड़न, शोषण, दोहन, दमन और क्रय-विक्रय। यही कुछ आज भी उनकी नियति बनी हुई है।
बराबरी का हक, समानता का दर्जा, संवैधानिक अधिकार, महिला जागृति, महिला मंच, संगठन, महिला आंदोलन और महिलाओं के लिए राष्ट्रीय कमीशन आदि की चर्चाएँ तो खूब होती हैं, पर आज भी महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा बूढ़ी मान्यताओं, अनर्गल रूढ़ियों और अंधविश्वासों के घने दलदली जंगल में फंसा हुआ है। आज भी अपनी पहचान के लिए उसे हर स्तर पर जूझना पड़ता हैं, वरना बाप, भाई, पति और बेटे से ही आज भी उसकी पहचा है। अभी भी वह लगभग दोयम दर्जे की नागरिक है। शिक्षा, नौकरी, पद, प्रतिष्ठा और आर्थिक आजादी भी उसकी सामाजिक व घरेलू हैसियत में कोई खास फर्क नहीं ला पाये हैं, क्योंकि वहाँ भी उसे पति या किसी पुरूष की इच्छानुसार चलना, काम करना और निर्णय लेना पड़ता है। वह घर चलाने और पति को सहयोग देने के लिए नौकरी तो करती है, परन्तु उसे अपने कमाये हुए पैसों को खर्च करने तक की आजादी नहीं है। ऐसी महिलाओं की संख्या आज भी काफी हैं, जो पति से अधिक तन्ख्वाह पाने के बावजूद उनकी मर्जी की ही गुलाम हैं और यदा-कदा उनसे पिटती भी रहती हैं। यही नहीं, निम्न आय वर्ग की श्रमिक महिलाएं तो अधिक श्रम करने के बावजूद अपने सहकर्मी पुरूष श्रमिकों से कम मजदूरी पाती हैं। और अपने निकम्मे व शराबी पति से पिटने के लिए अभिशप्त हैं। यौन-शोषण तो खैर दोनों जगहों पर बराबर मात्रा में है।
महिलाओं के साथ छेड़खानी, दहेज-हत्या, विधवा-हत्या (सतीप्रथा) बेइज्जती और बलात्कार की घटनाएं दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही हैं। इधर महिलाओं को नंगा करके घुमाए जाने या उनके माथे पर गोदना गोदवाए जाने या थाने मे उनके साथ सामूहिक बलात्कार करने की घटनाओं में जो अप्रत्याशित वृद्धि हुई है, उसे भी महिला उत्पीड़न के इसी परिप्रेक्ष्य में देखा-समझा चाहिए, जहाँ गर्भ में लिंग निर्धारित होते ही उनकी हत्या कर दी जाती है। आज भी यह धारणा आम है कि महिलाओं को दया, प्रेम, क्षमा, शर्म और हया की प्रतिमूर्ति बनकर घर की चार-दीवारी या पर्दें के भीतर ही रहना चाहिए। आज भी उन्हें पुरूषों की तुलना में कमजोर, हेय और दोयम दर्जे का मानकर मात्र भोग्या माना और समझा जाता है तथा उनकी बुद्धि, प्रतिभा, एकाग्रता, लगन, निष्ठा, जीजिविषा और कर्तव्यपरायणता की तुलना में (उनको नकार कर) अनके शरीर की खूबसूरती, मादकता, फीगर और सेक्स को ही महत्व दिया जाता हैं।
शेष फिर कभी--
(चित्र गूगल इमेज सर्च से साभार)
टिप्पणियाँ
होली की हार्दिक शुभकामनाऍं।