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मई 11, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कहानी---

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व्यक्त अव्यक्त              दूर जेल की दीवारों के बीच से अभी-अभी कुछ घंटों की आवाज़ उभरी है । और नीरव वातावरण के परदे पर बारह के अंक आकर टंग गए हैं । रात काफी गहरी हो चुकी है । और उसकी काली चादर के नीचे दुबक कर पूरी की पूरी कायनात बेसुध बेखबर सो रही है । हवा भी । मैं भी सोने की बहुत कोशिश कर रहा हूँ । पर लाख कोशिशों के बावजूद आज की रात मुझे नींद नहीं आ रही । लगातार इधर से उधर करवटें बदल रहा हूँ । दिमाग में एक अंधड़ सा चल रहा है । उस बवंडर से जूझते हुए जब गला सूख कर रेतीला हो जाता है, तो अचकचा कर उठ बैठता हूँ । सिरहाने रखी सुराही से पानी निक ा ल कर पीता हूँ । और फिर से उन्हीं अंधड़ों से जूझने लगता हूँ । गिट्टी बिछी हुयी सड़क पर से शायद अभी-अभी कोई रिक्शा गुज़रा है । खड़-खड़ की आवाज़ से विचारों का सिलसिला बीच में ही टूट गया है । और कांपते हुए होंठों से मैं मोती से चुने तुम्हारे अक्षरों और शीतल-सुवासित तुम्हारे शब्दों को पुनः दुहराने लगता हूँ । दरिया के शांत पानी में मानों कोई कंकड़ गिर गया हो । वृत्ताकार तरंगे धीरे-धीरे फ़ैलने लगती है...