कहानी---
व्यक्त अव्यक्त
दूर जेल की दीवारों के बीच से अभी-अभी कुछ घंटों की
आवाज़ उभरी है। और नीरव वातावरण के परदे पर बारह के अंक आकर टंग गए हैं। रात काफी गहरी हो चुकी है। और उसकी काली चादर के नीचे
दुबक कर पूरी की पूरी कायनात बेसुध बेखबर सो रही है। हवा भी। मैं भी सोने की बहुत कोशिश
कर रहा हूँ। पर लाख कोशिशों के
बावजूद आज की रात मुझे नींद नहीं आ रही। लगातार इधर से उधर करवटें बदल रहा हूँ। दिमाग में एक अंधड़ सा चल
रहा है। उस बवंडर से जूझते
हुए जब गला सूख कर रेतीला हो जाता है, तो अचकचा कर उठ बैठता हूँ। सिरहाने रखी सुराही से पानी
निकाल कर पीता हूँ। और फिर से उन्हीं अंधड़ों से
जूझने लगता हूँ। गिट्टी बिछी हुयी सड़क पर से शायद अभी-अभी कोई रिक्शा गुज़रा है। खड़-खड़ की आवाज़ से विचारों का
सिलसिला बीच में ही टूट गया है। और कांपते हुए होंठों से मैं मोती से चुने तुम्हारे अक्षरों और शीतल-सुवासित
तुम्हारे शब्दों को पुनः दुहराने लगता हूँ। दरिया के शांत पानी में मानों कोई कंकड़ गिर गया हो। वृत्ताकार तरंगे धीरे-धीरे
फ़ैलने लगती हैं। चारों तरफ। और किसी तिनके की तरह इन लहरों
पर हिचकोले खाता हुआ मैं एक बार फिर से डूबने उतराने लगता हूँ।
हाँ, हाँथ में मुड़ा-तुड़ा तुम्हारा ही ख़त है। शाम से ही जब से यह मुझे
मिला है, मैं इसे न जाने कितनी बार चबा-चबा कर दुहरा चुका हूँ। प्रेम पत्र जो ठहरा। और वह भी तुम्हारा प्रेम
पत्र। तुम्हारे लिखे हुए
शब्द और उनके पीछे की छुपी हुयी भावनायें किसी के लिए भी बहुत आवश्यक हो सकती हैं। मन माँगी मुराद की तरह। मेरे लिए भी यह ज़िंदगी जीने
के लिए एक संबल, ताकत और एक ज़रूरी मकसद हो सकता है।
आखिर इस दुनिया में ऐसा कौन होगा जिसको प्यार की
ज़रुरत नहीं होगी? मैं स्वयं भी प्रेम पाने के लिए लगातार भटक रहा हूँ। शायद बचपन से ही। पर देखो न, जो मेरे लिए
बहुत आवश्यक था, है और रहेगा, आज जब तुम वही सब कुछ मुझे देना चाहती हो, तो मैं
अपने आपको असहाय, शिथिल, बुझा और जंजीरों से जकड़ा हुआ महसूस कर रहा हूँ। आज वही सवाल, सवालों का वही
जंगल और चमकता हुआ लम्बा-तपता हुआ रेगिस्तान, जो पहले भी मुझे अक्सर मेरी
तन्हाइयों में परेशान किया करता था, आज फिर मेरे मानस से टकरा-टकरा कर मुझे नीम
पागल कर देना चाहता है। और असमर्थता की झाड़ियों में फंसा हुआ मैं मुट्ठी में तुम्हारे पत्र को कस कर,
एक लम्बी सांस के बाद उसे बार-बार होंठो से लगाने लगता हूँ। लक्ष्य के आस-पास, खुशियों
के ढेर के पास बैठ कर ‘उफ़’ यह आंसुओं की झड़ी! यह कैसी विडम्बना है? तुम नहीं
समझोगी। और शायद मैं तुम्हे
समझा भी नहीं सकता!
अंता, तुमने कभी सितारों को टूटते हुए, टूट कर
बिखरते हुए देखा है? नहीं, नहीं देखा होगा। बंद एअर कंडीशंड कमरे में सोने वाली तुम सड़क, आसमान, हवा
और तूफ़ान के बारे में क्या जानो? फिर भी ज़रा कल्पना करो, किसी अंधे व्यक्ति का
चश्मा गिर कर टूट जाये और जब वह उसे खोजने-टटोलने की कोशिश करे, तो उसकी उँगलियों
में चश्मे का टूटा हुआ कांच धंस जाय। कितनी पीड़ा होगी
उसे? किस कदर छटपटायेगा वह? प्यार में जल्दी ही पड़ाव चुन कर रिश्तों की गाँठ बांधने वाली तुम इसकी कल्पना भी
नहीं कर सकती। यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ।
शायद एक सियार दौड़ता हुआ पास के बागीचे में घुस गया
है। उसकी गंध पाकर
मोहल्ले के चौकस कुत्ते अचानक ही जाग कर भौंकने लगे हैं। सामने अपनी छप्पर के नीचे
बूटन बेखबर गुदड़ी में लिपटा हुआ सो रहा है। पास ही मोटी-मोटी जंजीरों में बंधी हुयी उसकी भैंसे उंघते
हुए मुंह चला रही हैं। रह रह कर जंजीरें खनक उठती हैं। एक भैंस का नवजात पाड़ा भी उसी के पास सो रहा है, जिसे उसकी माँ जागने पर धीरे-धीरे चाटने लगती
है। माँ का दिल है न?
कोई भी माँ अपने बच्चे को अपने सीने से अलग करना नहीं चाहती। कर ही नहीं सकती। पर कभी कभी माँ का दिल भी
कितना सख्त, कितना क्रूर और कितना मजबूर हो जाता है। उसके बच्चे को, उसके जिगर
के टुकड़े को ग़ैर आकर छीन ले जाते हैं। और वह निरीह होकर सबकुछ चुप-चाप देखती रह जाती है। स्वीकार कर लेती है। कहते हैं कि उसे स्वीकार
करना पड़ता है। मजबूरन। पर मेरी समझ से यह
अन्याय है। क्रूरता है। ममता के प्रति। बच्चे के प्रति।
पड़ोस के ऊंचे मकान से निकलने वाली पीली रोशनी
रोज़ की तरह सड़क पर लेट कर ऊंघ रही है। बड़े आदमी हैं। पानी व्यर्थ बह जाए। बिजली का बिल धकाधक बढ़ता चला जाये। उन्हें क्या? पैसों की कोई कमी थोड़े ही है। सुना है, विदेश से कोई नयी
कार मंगवा रहे है। मंगवायें। अपनी माँ की सेवा से अधिक कार ज़रूरी है उनके लिए। जानती हो, उनकी माँ को
कैंसर है। उनकी बीबी ने माँ
का बिस्तर, बर्तन-बासन और खाना-पानी सब कुछ अलग कर दिया है, ताकि बाकी घर को कैंसर
की छूत से बचाया जा सके। पैसों और सामाजिक ओहदे को तरजीह देने वाली बीबी कैंसर को छुआ-छूत की बीमारी
मानती है। और घर के इस कूड़े
को अलग कोने में डाल देना चाहती है, ताकि आँगन-घर पूरी तरह से साफ़-सुथरा, चमकता
हुआ और कीटाणु रहित नज़र आये। अगर अस्पताल में डाल देंगे, तो लोग-बाग़ क्या कहेंगे कि माँ का खयाल नहीं करते? इसलिए घर पर ही माँ
को एक दाई के रहम-ओ-करम पर छोड़ दिया है।
बहुत पहले का एक वाकया है। एक हकीकत। मेरी ज़िंदगी से जुड़ा हुआ। मेरे मकान के ठीक सामने एक लड़की रहती थी। बतौर किरायेदार। अपनी बूढ़ी और विधवा माँ के
साथ। उम्र होगी यही कोई अट्ठाईस-तीस
साल। उसकी आँखे बड़ी और
काफी खूबसूरत थीं। देह गठी हुयी और भरपूर। मुझे वह बहुत अच्छी लगती थी। लेकिन मुझे यह नहीं पता कि धीरे-धीरे मैं भी उसको अच्छा लगने लगा था। पहले तो वह मुझे देख कर दूर
ही दूर से मुस्कुराती थी। फिर धीरे-धीरे वह घर पर भी आने-जाने लगी। कभी कोई किताब माँगने। कभी किताब लौटाने। और कभी वैसे ही। वह अक्सर आकर मेरी चारपाई
पर लेट जाती थी। और लेटे-लेटे मुस्कराती रहती थी। ऐसे में उसकी आँखों में न जाने ऐसा क्या होता था कि मैं उसकी
ओर अनायास ही खिंचने लगता था। पर यकीन मानों, मैं कभी भी उसके करीब नहीं गया। बल्कि जा ही नहीं पाया। और वह ही क्यों? जब भी कोई
लडकी या कोई महिला मेरे पास यूं ही आकर खड़ी हो जाती है और अगर उसकी आँखों में उस समय एक पतली सी भी
चुम्बकीय तरंग होती है, तो मैं अपने आप उससे कट कर दूर हो जाता हूँ। ऐसे में, न जाने कहाँ से
मेरी आँखों के आगे एक चमकीला तपता हुआ रेगिस्तान आकर फ़ैल जाता है...रेंग कर पार
करने के लिए।
अंता, किसी भी खुले चमकते रेगिस्तान को पार कर पाना
मेरे लिए कितना दूभर और असंभव हो जाता है, तुम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती। मुझे गलत मत समझो। मैं अपने आप को आदर्श और
नैतिक साबित करने या करवाने की कोशिश नहीं करता। यह सब कुछ मेरे संस्कारों की
वजह से भी नहीं होता। मैं तुम्हे कैसे समझाऊँ? संस्कार और नैतिकता जैसी वाहियात और दकियानूसी बातों
को मैं मानता भी नहीं। ये सुन्दर और पालिशदार शब्द तो सिर्फ आम लोगों को भरमा कर बेवक़ूफ़ बनाने के
लिए गढ़े गए हैं, ताकि उनको हर वक्त बंदिशों में बाँध कर रखा जा सके। और यह सब कुछ ख़ास बड़े लोगों
की चाल है। और इस तरह के
षड़यंत्र से मैंने अपने आप को हमेशा बचाने की कोशिश की है।
पड़ोस की बूढ़ी माँ को जब भी मैं देखता हूँ, उसके
झुर्रीदार चेहरे में, उसकी सूनी-सूनी आँखों में और उसके आस-पास की बीमार गंध में मुझे
मेरी माँ नज़र आती है। वह भी अंतिम समय में हरवक्त इसी तरह बिछावन पर पड़ी रहती थी। दिन भर के दम घोंटू और हीन
भावना वाले वातावरण से थक कर, चूर हो कर, लोगों की भेदती हुयी नज़रों को झेलते हुए
ग्लानि और आक्रोश से भर कर मैं जब भी माँ के पास जाता था, मेरे पास ढेरों सवाल
होते थे। वे काँटों की तरह
मेरे दिमाग में चुभ रहे होते थे। मैं लोगों से अपनी तुलना करता। और चीख-चीख कर माँ को हलकान कर देता था---क्यों पैदा किया है मुझे? आखिर क्यों? मैं
माँ को झकझोर कर बेदम कर देता था।
माँ की कमज़ोर सांसें उखड जातीं थीं। पल भर के लिए वह मुझे
घूरती, सांत्वना के लिए उसके सूखे होंठ फड़फड़ाते। और वह अपनी कांपती
हंथेलियों को मेरे चेहरे, मेरे पसीने से लथपथ सिर की तरफ बढ़ा देती। मुझे थोड़ी रहत मिलती। पर ठीक अगले ही पल उसका
चेहरा पीला-ज़र्द हो जाता। और वह अपनी सूनी-सूनी मवादी आँखों से खिड़की के पार खड़े नीम के उस सूखे ठूंठ
पेड़ को देखने लगती, जिसपर आज भी अलस्सुबह एक गिद्ध आकर बैठ जाता है। माँ आखिर कब तक और कितने
सवालों के जवाब देती? एक दिन चुपके से चली गयी। मौन हो गयी। और मैं हमेशा-हमेशा के लिए
अकेला हो गया। नितांत अकेला।
तुम नहीं जानती। कोई नहीं जानता। सिर्फ मैं जानता हूँ। एक बार व्यथाओं के उमस से
भरी हुयी रात में माँ ने मुझे बताया था। नाली के किनारे, एक बरसाती काली रात में कीचड़ के बीच मैं पैदा हुआ था। प्रसव की पीड़ा को पीते हुए
अपनी टांगों पर पड़े अपने कलंकी संतान को जब माँ ने अपने करीब खींचा, तो एक बूढ़ी
कुतिया उसे चाट रही थी। उसी हालत में माँ ने मुझे टटोला। और चीख पड़ी---नहीं, नहीं...ऐसा नहीं हो सकता। पर ऐसा हुआ था। न चाहते हुए भी, ऐसा हुआ था। और तभी माँ को प्रतीत हुआ था
कि कुछ खूंखार काले हाँथ लगातार मेरी तरफ बढ़ रहे हैं। उसे फ़ौरन समझ में आ गया कि
वे लोग मुझे लेने आये हैं। और वे उसके जीवन के इस इकलौते सहारे को छीन कर के ही मानेंगे। फिर क्या था, उसी पल, उसी
हालत में, मुझको सीने से चिपका कर माँ वहां से भाग खड़ी हुयी थी। और इस अनजान शहर में आकर
उसकी भीड़ में छुप गयी थी। उस समय यहाँ न तो वह किसी को जानती थी और न ही कोई उसे पहचानता था। और तब यहाँ न तो मुझे कोई
उससे छीनने वाला था और न ही उस पर कोई हंसने वाला था।
आसमान में काले बादल छा गए हैं। हवा चलनी बिलकुल बंद हो गयी
है। दूर मेंड़ों के पास
से उठने वाली मेंढकों की टर्र-टर्र साफ़ सुनायी पड़ रही है। झींगुरों की आवाज़ भी इस
पूरे वातावरण को संगीत मय बना रही है। मैं तुम्हारे पत्र को फिर से पढ़ता हूँ। उद्द्वेलित होता हूँ। और याद आती है तुमसे हुयी
वह पहली मुलाकात।
---हेलो हैंडसम, हाउ स्वीट! कितनी दिलकश है
तुम्हारी आवाज़...गिव मी योर आटोग्राफ प्लीज़। और तुमने अपनी खूबसूरत नर्म हथेली को मेरे सामने फैला दिया
था।
मैं हिचकिचाया था। और झिझक कर अलग हो गया था। मैं हर बार की तरह कार्यक्रम
ख़त्म होने के बाद भीड़-भाड़ से बचते हुए फ़ौरन वहां से निकल जाना चाहता था। पर तुम तो जैसे पहले से ही
कुछ तय कर के आयी थी। तुमने फ़ौरन ही अपनी बड़ी बड़ी आँखों को नचा कर मेरे कंधे पर अपना हाँथ रख दिया
था---गिव मी आटोग्राफ, प्लीज़। और तुमने फिर से अपनी हंथेली सामने कर दी थी। और तब मुझे मजबूरन तुम्हारी
हंथेली पर अपना नाम लिखना पड़ा था।
लेकिन तुम
इतने भर से कहाँ मानने वाली थी---दैट्स लाइक ए गुड ब्वाय। आओ चलो, कहीं बैठ कर तुम्हारी कामयाबी को सेलिब्रेट करते हैं।...चलो कॉफ़ी हाऊस चलते हैं। और इससे पहले कि मैं कुछ
कहूं, तुम मुझे खींचते घसीटते हुए कॉफ़ी हाऊस में लेकर आ गयी थी। मैंने देखा कि मेरी निकटता
पाकर तुम उस दिन हवा की लहरों पर सवार होकर नाच रही थी। और शायद न चाहते हुए मैं भी। और वाकई उस समय हमारे बीच
कोई भी ऐसा वैसा रेगिस्तान नहीं पसरा हुआ था।
पहली मुलाकात के बाद की कुछ और छोटी-मोटी मुलाकातें। और आज यह पत्र। मैं जनता था। तुम्हें आश्चर्य भी होगा। पर यकीन मानों, जिस दिन तुम
मेरे संपर्क में आयी थी, ठीक उसी दिन मैं जान गया था कि एक न एक दिन तुम मुझ गरीब
भिखारी के आगे अपने दोनों हाँथ ज़रूर फैला दोगी। क्योंकि जहाँ तक मैं तुमको
जान पाया हूँ, तुम अपने सपनों, आकांक्षाओं और इच्छाओं की दुनिया को हर हाल में
फ़ौरन साकार कर लेना चाहती हो। जैसे कि अब तुम मुझे पूरी तरह से पाना और अपने प्यार को
रिश्ते की एक डोर से बाँध लेना चाहती हो।
पर अंता, भावनाओं की जगह कुछ ठोस-सच्चे रिश्तों की
ज़रुरत होती है। मैं जानता हूँ...हाँ, कुछ
ठोस सच्चे रिश्ते! पर....तुम्हें नहीं मालूम। तुमने कभी गौर भी नहीं किया। तुमको तो बस प्यार चाहिए था। प्यार का रूमानी संसार चाहिए
था। और चाहिए था प्रेमी
के रूप में मेरे जैसा खूबसूरत और स्मार्ट दिखने वाला कोई युवक। तुमने पाया भी। पर गैलरी में, सडकों पर,
बागीचे में, पार्क में, हर जगह और हर वक़्त मैंने यही कोशिश की कि मैं कभी भी
तुम्हारे सामने अकेला-नंगा न होने पाऊँ। कहीं कुछ खुल न जाये। क्योंकि एकांत में हर प्रेमी
जोड़ा सिर्फ नर और मादा होता है। और घूम फिर कर उनकी बातें शरीर पर आ जाती हैं। प्यार पर देह भारी पड़ने लगता है। और मैं...!! मैंने तुम्हें
बताया न, जब भी कोई लडकी मेरे करीब आकर खड़ी हो जाती है, मैं न चाहते हुए भी उससे
कट कर दूर हो जाता हूँ। बहुत दूर। इसीलिये मैं जान बूझ कर कभी भी तुम्हारे पास निपट अकेला नहीं रहा। तुम्हें याद होगा, हमारे
बीच कोई न कोई बहस पड़ी रहती थी। और पहरेदार के रूप में हरवक्त खड़ी रहतीं थीं ढेरों बातें। दुनिया ज़हान की ढेरों खबरे। और जीवन, समाज और राजनीति
से जुड़े हुए ढेरों मसले।
जब मैंने पहली बार अपने आप को गौर से देखा था, समझा
था, मेरी मुट्ठियाँ कस गयी थीं। और कांपते हुए जबड़े भिंच कर कड़े हो गए थे। आक्रोश में मैं, कुछ भी न
कर पाने की वजह से, बदहवास बड़बड़ाने लगा था। भारी-भारी लाल हथौड़े सिर पर
बजने-घनघनाने लगे थे। होंठों पर सफ़ेद फेन की परतें चढ़ने-उतरने लगी थीं। और तब पहली बार जी में आया
था कि माँ का, बिछावन पर पड़ी उस बूढ़ी असहाय औरत का गला घोंट दूं। और चीखते हुए सड़कों पर दौड़ पडूं। माँ का निरीह चेहरा मेरे आगे सिसक रहा था। वह रो-रो कर मुझे कुछ
समझाने की बेइंतहा कोशिश कर रही थी। मैं आवेश में उठा था। मैंने उसे गौर से देखा था। और काफी देर तक देखता रहा था। लेकिन अंत में हार कर उससे चिपट गया था। हमारी हिचकियाँ और टूटती हुयी
साँसें एक दूसरे में गुंथ सी गयी थीं। और नीम का पुराना ठूंठ पेड़ खड़खड़ा कर हिलने लगा था। और उस पर बैठा हुआ गिद्ध उड़
गया था।
आज भी कभी कभी जी में आता है कि काट दूं या जला कर
राख कर दूं उस पेड़ को। या पत्थर मार-मार कर उन दोस्तों और
आसपास खड़े-बिखरे उन तमाम हवसी-तमाशाई लोगों को खूनम-खून कर दूं, जिन्होंने मुझे
बहुत जल्दी ही देह की परिधि में डाल दिया था। पर सवालों की भूमि पर
निरंतर सवाल उपजते रहते हैं। और मैं भी माँ की सूनी आँखों की तरह थक हार कर चुपचाप इस सूखे पेड़ को बस
देखता रहता हूँ। शायद आदमी जब बहुत थक जाता है, तब उसकी आँखें टिकने के लिए कोई न कोई बिंदु,
कोई न कोई अवलंब तलाश कर ही लेती हैं।
माँ की सलाह पर और खुद सोच-समझ कर मैंने नियमित
व्यायाम और निरंतर रियाज़ करना शुरू कर दिया था। सेहत सुधरी थी। और आवाज़ का जादू दिन पर दिन
असरदार होने लगा था। सुदृढ़ काया और सुडौल मांसपेशियों को देख कर ही मास्टर साहब ने कहा था---तुम
मिलिट्री में क्यों नहीं चले जाते?
तब पड़ोसी मुल्क से युद्ध चल रहा था। देश को गायक, सितार वादक, मास्टर
और वकील से अधिक एक सैनिक की आवश्यकता थी। पर एक सैनिक और सिपाही के लिए अच्छी सेहत की नहीं, अच्छे
निशाने की नहीं, अच्छी और पाक देशभक्ति की नहीं, मेडिकल चेकअप में चुने हुए एक
परिपूर्ण मर्द की ज़रुरत होती है। मास्टर साहब को तब मैं कोई ज़वाब नहीं दे पाया था। देता भी क्या? और कैसे? मास्टर
साहब की आश्चर्य से फटी हुयी आँखें और यार-दोस्तों की खिलखिलाहटें शायद मैं बर्दाश्त नहीं
कर पाता। मन मसोस कर रह गया। माँ भी चाहती थी कि मैं या
तो मास्टर बनूँ या फिर वकील। इसलिए बाद में सोच कर तय किया कि सैनिक, सिपाही या मास्टर नहीं वकील बनूँगा। क़ानून से अपने लिए हक
मांगूंगा। मन की शांति और शौक
के लिए गायक बनूँगा। और रविशंकर जी की तरह सितारवादक बनूँगा। और धन कमा कर गरीबी के नरक से छुटकारा
पाऊंगा।
वैसे, हक माँगा नहीं छीना जाता है। मैं जानता हूँ। और हक़ छीनने के लिए
संगठित-एक जुट होना पड़ता है। यह भी मुझे पता है। लेकिन मैं कमज़ोर था। असहाय। अपनी असलियत से डरा। सहमा। लाज्जित। और फिर मैं किस को संगठित
करता? उनको, जिनके बीच मैं आज तक नहीं गया? या उनको जिनके बीच रहते हुए भी मैं आज
भी अजनबी और पराया हूँ। इसीलिये मैंने एक दूसरा ही रास्ता चुन लिया। सोचा, एक दरिन्दे समूह से,
कुछ वहशी लोगों के गिरोह से अकेले लड़ने-जूझने और हारने के बजाय पहले उनके बीच
शामिल हो जाओ। उन्हीं की तरह रहो। उन्हीं की तरह बातें करों। उनकी हाँ में हाँ मिलाओ। उनकी ख़ुफ़िया गिरी करो। एक एक करके उनकी कमजोरियों का पता लगाओ। धीरे-धीरे उनके लोगों को अपनी
बातें समझाओ। उनको उकसाओ। और मौका देख कर वहां
विद्रोह के बीज बो दो। यही सब सोच कर मैं खामोश रह गया। और सितार के तारों में डूब कर तुम्हारी दुनिया का न होने
के बावजूद तुम्हारी दुनिया में पूरी तरह से रच बस गया हूँ।
आज उसी सितार के सारे तार टूट गए हैं। मुझे नींद नहीं आ रही है। मेरे चारों तरफ सिगरेट के टोंटे
बिखरे पड़े हैं। और कसैले धुंए की गंध के बीच मैं अपने आप को छिपाने की अथक कोशिश कर रहा हूँ। पर बड़े बड़े नाखूनों वाले पंजे
लगातार मेरी तरफ बढ़ रहे हैं। कहीं ये मुझे दबोच न लें। यकायक मौसम बहुत गरम हो गया है।
पहले मैं सिगरेट नहीं पीता था। पीता भी कैसे? सिगरेट पीना
बुरा होता है। स्वास्थ्य के लिए
हानिकारक होता है। ऐसा पढ़ा था। सुना था। मोहल्ले के लोगों और माँ ने भी यही सीख दी थी। माँ को तो सिगरेट से वैसे
भी सख्त नफरत थी।
उस दिन दोस्तों की महफ़िल जमी हुयी थी। चाय की गर्म चुस्कियों और
रसयुक्त बातों के बीच सिगरेट का धुंआ उठ रहा था। पर मैं उनकी बातों से कटा
दूर चुपचाप चाय पीने में व्यस्त था। उनकी बातचीत का विषय, लहजा और मानसिकता मुझे कहीं से भी बांध नहीं पा रही थी। एक तरह से मुझे उनके ऊपर
तरस आ रहा था। मैं उठ कर जाने की सोच ही रहा था कि एक दोस्त ने आग्रह किया----तुम भी लो
एकाध कश!
---नहीं, मैं सिगरेट नहीं पीता। मैंने साफ़ मना कर दिया था।
---लो फूंको यार, क्या हिंजड़ों जैसी बाते करते हो?
और धुएं के बादलों के साथ जोरदार ठहाके हवा में फ़ैल
गए थे। मुझे लगा था, मानों
किसी ने मेरे ऊपर खौलता हुआ तेल फेंक दिया हो। मैंने अपने पूरे शरीर पर फफोलों की जलन महसूस की थी। अगले ही पल मेरी कांपती
उँगलियों और फड़फड़ाते हुए होंठों के बीच सिगरेट थी। और मुंह-नाक में ढेरों धुंआ। उस दिन सारे दोस्तों को आश्चर्य में डालता हुआ मैं एक पर एक कई सिगरेट पीता चला गया था। काफी देर बाद मैं थरथराते
हुए उठा था। चाय-समोसे का पैसा काउंटर
पर ही अदा किया था। रोज की तरह कहकहे वाली मेज़ पर बिल मंगा कर हंसते हुए नहीं। रास्ते की छोटी सी दूरी
काफी देर में तय कर के घर आया था। अकेला खामोश घर रोज़ की तरह मेरी प्रतीक्षा में खड़ा था। पर मैं उसे देख कर
मुस्कराया नहीं। एक ही झटके में खुल जाने वाले ताले को खोलने में मुझे उस दिन काफी देर लगी थी।
कमरे के अन्दर आकर और दरवाज़ा बंद करके मैंने पहले
तो देर तक स्विच को ऑन-ऑफ किया। फिर घुप्प अँधेरा करके अपने सारे कपड़े उतार कर परे फेंक दिया। अब मैं पूरी तरह से
वस्त्रहीन था। मैंने नंगेपन को छू कर देखा। और सूखे खुरदुरे स्पर्श को महसूस करके बेचैनी से पलंग पर लेट गया। खुरदुरी ज़मीन पर हंथेली
घूमने लगी। लगातार। तेज़ और तेज़। साँसे फूल कर अपने चरम पर
पहुँचने गयीं। पर व्यर्थ। अस्पष्ट। निराकार। खाली। खोखला। हताशा से भरा हुआ। और सिर्फ फूलती हुयी साँसें। मेरा पूरा शरीर पसीने से
भींग कर तरबतर हो गया था। पर तभी अचानक मैं अन्दर तक काँप उठा था। सिहर कर हाँथ-पाँव ढीले पड़
गए थे। और तनी हुयी हड्डियों
में डर की एक लहर दौड़ गयी थी। अंधेरे कमरे में रोशनदान के ज़रिये रोशनी की एक पतली किरण पलंग पर पड़ रही थी। और माँ की तस्वीर एकटक मुझे
घूर रही थी। मैंने देखा कि माँ
की आँखों से आंसू टपक रहे हैं। और वह जार-जार रो रही है। उस दिन मैं पूरी रात सितार बजता रहा था। उंगलियाँ कट कर खूनम खून हो
गयी थीं।
तुम्हारा पत्र मैं एक बार फिर से पढता हूँ। प्यार और भावुकता में डूबी
हुईं तुम्हारी रूमानी बातें मुझे बहुत ही प्यारी लग रही हैं। जी करता है कि पढ़ता ही रहूँ। तुम्हारी दैहिक खुशबू भी
मैं इस समय साफ-साफ़ महसूस कर रहा हूँ। अंता, तुम्हारी तरह मैंने भी हरवक्त यही चाहा है कि तुम मेरे पास यूं ही
सिकुड़ी सिमटी हुयी बैठी रहो। मैं तुम्हारे बालों को सहलाता रहूँ। और तुम मेरी आँखों के सूने पन में अपने प्यार का सतरंगी
इन्द्रधनुष भर दो। तमाम नियम और रिश्तों की बंदिशों को तोड़ कर तुम मेरी हो जाओ। और मैं तुम्हारा। मैं भी तुम्हें प्यार करता
हूँ। बेइंतहा प्यार! पर
हर बार यूं ही कुछ आकर खट से गले में फंस जाता है। और मैं अपने सारे सपनों, सारे
अरमानों को परे झटक देता हूँ। हर बार ताजमहल बनने से पहले यूं ही एक महायुद्ध सा छिड़ जाता है। और मेरे न चाहते हुए भी
आँखों के सामने एक चमकीला तपता हुआ रेगिस्तान आकर पसर जाता है...रेंग-रेंग कर पार
करने के लिए।
सामने वाले ताड़ के पेड़ से चीखता हुआ एक चमगादड़ उड़ता है। और बिजली के नंगे तारों से
जाकर चिपक जाता है। चिंगारियां निकलती हैं। कुछ देर तक वह छटपटाता है। चीखता है। और शांत हो जाता है। मैं भी तड़पकर तुम्हारे पत्र को मुट्ठी में बंद करता हूँ। और होंठों से लगा लेता हूँ।
---हाँ...अंता, यह सच है कि देह, द्रव्य और दीवारों
की बंदिशों से घिरे इन आड़े-तिरछे सामाजिक रिश्तों के बीच मैं किसी का कुछ भी नहीं
हो सकता।...हाँ, रिश्तों की
कुछ नयी परिभाषाएं मैं ज़रूर गढ़ना चाहता हूँ। पर उफ़! निपट अकेला मैं और बिजली का यह नंगा तार!...मेरी सोच इस समय
भी लकवाग्रस्त हो रही है। और वाकई मुझे दूर-दूर तक कहीं कुछ भी नज़र नहीं आ रहा।...क्या तुम साहस करके मुझे कोई ऐसा सही रास्ता
सुझा सकती हो, जिस पर चल कर हम दोनों प्यार की भरपूर ज़िंदगी जी सकें?
@अरविन्द कुमार
@अरविन्द कुमार
(यह कहानी "सुजाता" के मई अंक में प्रकाशित हुयी है)
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