संदेश

जनवरी 25, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बसंत पंचमी का यह दिन----

आज बसंत पंचमी है. आसमान में उड़ती हुई पतंगों को देख कर बचपन की ढेर सारी यादें ताज़ा हो गयीं. बचपन बीत गया,जवानी आयी और अब वह भी हाथ से फिसलती जा रही है. पर आसमान में सिर ताने उड़ती हुई लहराती पतंगें मुझे आज भी रोमांचित करती हैं. आज़ादी की चाहत की तरह. बचपन में हम अपनी पतंगें और माँझा ख़ुद बनाया करते थे. क्या जोश होता था ? सब कुछ अपना. अपनी ज़मीन, अपना आकाश, अपनी हवा और अपनी बाल सुलभ पतंगबाजी की प्रतियोगिता. हार में भी जीत और जीत में भी हार. लेकिन अब समय बदल गया है . न तो अब उस तरह के खुले मैदान हैं और न ही उतनी साफ़ सुथरी खुली हवा . पतंग , माँझा , चरखी और डोर सब ब्रांडेड हो गए हैं . और पतंगबाजी हुड़दंग . और हर हाल में जीतने की लालसा . हर साल न जाने कितने बच्चे इस पतंगबाजी के चक्कर में अपनी जान गवाँ बैठते हैं . कभी छत से गिरकर और कभी करंट लगने के कारण . पतंगों को भी देखिये तो ऐसा लगता है कि आसमान में पतंगें नहीं रुपये उड़ रहे हैं . वाकई बाज़ार ने हमारे तीज त्योहारों को भी एक वस्तु बना कर रख दिया है. पहले बसंत पंचमी के दिन

ओबामा की जासूसी का सच

कौन कहता है कि अमेरिका इस समय भीषण संकट के दौर से गुजर रहा है ?कम से कम नए राष्ट्रपति ओबामा की ताजपोशी के भव्य लाइव टेलीकास्ट को देख कर तो ऐसा नही लगता है कि वहां के बैंक कंगाल हो गए हैं.बाज़ार सूने पड़े हैं.उद्योग धंधे ठप्प पड़े हैं. गरीबी और बेरोजगारी काफी बढ़ गयी है.उस दिन अमेरिका परस्त पूरी दुनिया की मीडिया ने यह स्थापित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी कि अमेरिका अभी भी अमीर और शाहखर्च है.और इस तरह की छोटी-मोटी आर्थिक मंदी तो उसके लिए कोई समस्या ही नहीं है. बेल आउट और राहत पैकेज-वैकेज तो बाद में देखा जायेगा,पहले दुनिया भर को यह बता दिया जाए कि उसकी वास्तविक शानो-शौकत क्या है ?लोंगो ने देखा.लोग खुश हुए.और आश्वस्त भी कि यह नया राष्ट्रपति अमेरिका सहित पूरी दुनिया को बदल देगा। पर लगता है,इन् तमाम दरबारी मीडिया को इस से भी संतोष नहीं हुआ.अचानक उनको लगा कि इतने सारे ताम-झाम के बावजूद प्रभाव उतना पड़ा नहीं जितना कि उम्मीद थी.आर्थिक मंदी और संकट की चहुँओर होने वाली चर्चाओं के शोर में ताजपोशी का यह कार्यकर्म और उसके पीछे का संदेश कंही नक्कारखाने में तूती बन कर ना रह जाए.इसलिए अगले ही दिन उन्ह

लीजिये मैं भी आ गया मैदान में.....

दोस्तों,काफ़ी दिनों से सोच रहा था कि मै भी अपना कोई ब्लॉग बनाऊँ.पर नही चाहता था कि हजारों ब्लोगों की भीड़ में मेरा ब्लॉग भी गुम हो कर रह जाए। इस के अलावा मैं यह भी चाह रहा था कि ब्लॉग पर नियमित रह सकूँ। कुछ तो मन की तीव्र इच्छा और कुछ दोस्तों का दबाव। अब मैं भी उतर रहा हूँ इस नई विधा में। कोशिश करूँगा कि मेरे पाठकों और मित्रों को मुझसे निराशा न हो। बाकी बातें बाद में। अभी तो फिलहाल के लिए अपनी दो कवितायें यहाँ दे रहा हूँ। प्रतिक्रिया अपेक्षित है। (एक) कुछ भी तो नहीं गुजरा इधर से / काफी दिनों से न कोई विजय जुलूस, न कोई महान शवयात्रा और नाही / किसी प्रेमी युगल की तलाश में खोजी कुत्तों का कोई झुंड फ़िर भी, सड़कों पर ये मुर्गे के पंख क्यों यह शहर अचानक बेजुबान क्यों? (दो) कौन कहता है कि परछाईं हमेशा आदमी के साथ चलती है वह आदमी के नहीं रोशनी के साथ चलती है उसी के अनुसार कभी छोटी,कभी बड़ी,कभी आगे,कभी पीछे और कभी कभी तो बिलकुल गुम हो जाती है आदमी को निपट अकेला छोड़ कर परछाई आदमी के नहीं रोशनी के साथ चलती है और रोशनी बल्ब या मोमबत्ती से नहीं सूरज की आग से पै