लीजिये मैं भी आ गया मैदान में.....

दोस्तों,काफ़ी दिनों से सोच रहा था कि मै भी अपना कोई ब्लॉग बनाऊँ.पर नही चाहता था कि हजारों ब्लोगों की भीड़ में मेरा ब्लॉग भी गुम हो कर रह जाए। इस के अलावा मैं यह भी चाह रहा था कि ब्लॉग पर नियमित रह सकूँ। कुछ तो मन की तीव्र इच्छा और कुछ दोस्तों का दबाव। अब मैं भी उतर रहा हूँ इस नई विधा में। कोशिश करूँगा कि मेरे पाठकों और मित्रों को मुझसे निराशा न हो। बाकी बातें बाद में। अभी तो फिलहाल के लिए अपनी दो कवितायें यहाँ दे रहा हूँ। प्रतिक्रिया अपेक्षित है।

(एक)
कुछ भी तो नहीं गुजरा
इधर से / काफी दिनों से
न कोई विजय जुलूस, न कोई महान शवयात्रा
और नाही / किसी प्रेमी युगल की तलाश में
खोजी कुत्तों का कोई झुंड
फ़िर भी, सड़कों पर ये मुर्गे के पंख क्यों
यह शहर अचानक बेजुबान क्यों?

(दो)
कौन कहता है
कि परछाईं हमेशा आदमी के साथ चलती है
वह आदमी के नहीं
रोशनी के साथ चलती है
उसी के अनुसार
कभी छोटी,कभी बड़ी,कभी आगे,कभी पीछे
और कभी कभी तो बिलकुल गुम हो जाती है
आदमी को निपट अकेला छोड़ कर

परछाई आदमी के नहीं
रोशनी के साथ चलती है
और रोशनी बल्ब या मोमबत्ती से नहीं
सूरज की आग से पैदा होती है.

टिप्पणियाँ

Arvind Mishra ने कहा…
स्वागत है संभावनाशील प्रस्तुति !
ghughutibasuti ने कहा…
गणतन्त्र दिवस की आपको भी शुभकामनाएँ।
आपका स्वागत है। बढ़िया कविताएँ लिखी हैं।
घुघूती बासूती
Satish Chandra Satyarthi ने कहा…
कम शब्दों में काफी गंभीर अभिव्यक्तियों को आकार दिया है आपने.
बधाई.
(अगर आप बिना किसी हर्रे फिटकरी के कोरियन लैंगुएज सीखना चाहते हैं तो मेरे ब्लॉग http://koreanacademy.blogspot.com/ पर आएं |)
ब्‍लाग जगत में आपका स्‍वागत है अरविन्‍दजी। शुभ-कामनाएं। कविताएं दोनों अच्‍छी हैं।
दीपक बाबा ने कहा…
achchi kavita. shayad apki lekhni se kuchh or bhi padne ko milega

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