अशिक्षा के अँधियारे के विरुद्ध

आजकल से बीसेक साल पहले जब मैं स्कूल और कालेज में पढ़ा करता था, तब इम्तहान में नकल करने की पंरपरा नहीं थी। नकलचियों की संख्या कम हुआ करती थी। और छात्र-नौजवान ईमानदारी से अपनी अकल के आधार पर इम्तहान देने में विश्वास करते थे। और नकल करने वालों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा एवं उन्हें जलील किया किया जाता था। पर तब स्कूलों-कालेजों में पढ़ाई होती थी। अध्यापकगण कक्षाओं में पढ़ा-पढ़ा कर कचूमर निकाल देते थे। ट्यूशनों का इतना चलन नहीं था। अध्ययन-मनन-चिंतन का माहौल था। घर पर भी पढ़ाई को लेकर अक्सर पिटाई हो जाती थी। और हर वक्त यह हिदायतें दी जाती थीं, कि चाहे कुछ भी हो जाएं, फेल क्यों न हों, पर नकल कभी मत करना। तब न कहीं नकल विरोधी अध्यादेश था, न नकल रोकने के लिए उड़ाका दल थे। कक्ष निरीक्षक और प्रधानाचार्य का भय ही हमारे लिए काफी हुआ करता था। लेकिन तब विद्यालय वाकई विद्या मंदिर हुआ करते थे। अध्यापक गुरू थे। और शिक्षा ने व्यवसाय का रूप कत्तई नहीं अख्तियार किया था ।
पर अब परीक्षाओं में की प्रथा-सी चल पड़ी है। नकलचियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। नकल कराने के लिए एजेंसिया खुल गई हैं, जो ठेका लेकर नकल करवाती हैं। अभिभावक और अध्यापक नकल रोकना या रोकने की चेष्टा करना तो दूर, खुद नकल करवाने में संलग्न हो गए हैं। अब नकल न करने वाला एवं पठन-पाठन और चिंतन-मनन की बातें करने वाला हेय दृष्टि से देखा जाता है। तथा बेवकूफ, कप-मंडूक एवं ठस-बुद्धि का कहकर जलील किया जाता है। आजकल के अध्यापक भी पढ़ाने-लिखाने में कम, बल्कि ट्यूशन पढ़ाने, प्रैक्टिकल में नम्बर दिलवाने आदि की ठेकेदारी करने लगे हैं। संक्षेप में कहें, तो अब के अध्यापक न तो गुरू रह गये हैं न ही छात्र सही अर्थो में छात्र। विद्यालय में गुंडागर्दी, अराजकता, अशिक्षा, अश्लीलता और नशा-खोरी बढ़ती जा रही हैं। अब के विद्यालय, विद्यालय या मंदिर नहीं, दूकान या कि मंडी बन गये हैं। और यह हालत सरकार व गैर-सरकारी हर प्रकार के विद्यालयों की है।, बेसिक से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों तक।
आखिर शिक्षा का स्तर इतना गिर क्यों गया हैं ? क्यों पढ़ना और पढ़ाना अब मिशन जैसा नहीं रह गया है ? और क्यों इसको सुधारने की चिंता किसी को नहीं है ?
वैसे, कहने को तो यह कहा जा सकता हैं कि शिक्षा का प्रसार हो रहा है। पढ़ने-लिखने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। कोचिंग, इंस्टीट्यूटों, पत्राचार, पाठ्यक्रमों और स्कूलो-कालेजों की संख्या में दिन बढ़ोत्तरी हो रही है। ’सबके लिए शिक्षा’ का अभियान चालाय जा रहा है। पर फिर भी, आज विचार शून्यता की स्थिति है। और सोचने-समझने वालों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। क्यों ? तर्क दिया जा सकता है कि आज जब समूचा समाज विकृत हो चला है, तो स्कूल और कालेज क्यों न होंगे ? आखिर समाज के विभिन्न हिस्सों से ही तो पढ़ने के लिए छात्रगण आते हैं। और चूंकि प्रदूषण बाहर चारों तरफ फैला हुआ है, इसलिए आज स्कूल और कालेज भी प्रदूषित हैं।
पर यह पूरा सच नहीं है, क्योंकि आज समाज में ढ़ेर सारी गड़बड़ियां जो दिखायी पड़ रही हैं, उनके पीछे एक मुख्य कारण शिक्षा के स्तर में गिरावट का होना है। अर्थात् आज चूंकि शिक्षा जगत का माहौल प्रदूषित हैं, इसलिए समाज भी प्रदूषित है। क्योंकि सिद्धान्तः विद्यायल होते इसलिए हैं कि वहां पढ़ने वाले कायदे से शिक्षित-ज्ञानशील और विचारवान होकर अच्छे नागरिक बनें और अपनी प्रतिभा व सोच-समझ से समाज को सही दिशा दें। इस लिहाज में देंखें तो शिक्षकों के ऊपर और विद्यालयों पर एक बहुत बड़ी नैतिक जिम्मेदारी होती हैं, जिसका निर्वाह करने में अगर जरा भी चूक हुई तो समाज की सुख-शांति और ताना-बाना ही नहीं, आने वाले कल की तस्वरी भी पूरी तरह से चैपट हो जाएगी। और यही आज कल हो रहा है।
आज न तो शिक्षक और न ही स्कूल कालेज अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को ठीक ढंग से निभा पा रहे हैं। इसलिए तो दिन पर दिन अमीर-गरीब के बीच की खाई चैड़ी होती जा रही है। इसी देश में दो तरह के नागरिक पैदा हो रहे हैं। श्रम और श्रमिकों को हेय दृष्टि से देखा जा रहा है। सच्चाई, ईमानदारी और नैतिकता की बातें करने वालों को आज बेककूफ और न जाने क्या-क्या समझा जाता है। सभी उच्च मानवीय मूल्यों का ह्नास हो रहा है। और पतनशील संस्कृति जीवन के हर क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन हावी होती जा रही हैं।
दरअसल, जब समाज में पैसे का वर्चस्व हो, उपभोक्ता वाद का बोलबाला हो और समाज की संचालक शक्तियां येन-केन-प्रकारेण मुनाफा और सिर्फ मुनाफा कमाने में जुटी हों, तब उनके लिये बहुत जरूरी होता है कि वे समाज में विचार-निर्माण की प्रक्रिया को पूरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट कर दें। और यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि स्कूलों-कालेजों को पूरी तरह से तहस-नहस करके शिक्षा जगत को पूरी तरह से प्रदूषित न कर दिया जाए। क्योंकि इसी से तो समाज के भविष्य का निर्माण होता है। अगर विचारों की जन्मस्थली को ही भ्रष्ट कर दिया जाए, तो बृहत्तर समाज को विचार-शून्य बनाकर आसानी से किसी भी प्रकार की चाकरी में लगाया जा सकता है।
यही कारण है कि आज सबके अधिक सोचनीय हालत शिक्षा के क्षेत्र की है। अब चूंकि विद्यालय, शिक्षा पद्धति और पाठ्यक्रमों के साथ-साथ पढ़ने और पढ़ाने वाले दूषित माहौल से ग्रस्त हैं, इसलिए भोगवादी और मुनाफाखोर शक्तियां आसानी से समाज को अपने पंजो में जकड़ कर दूषित-प्रदूषित कर रही हैं। ऊपर से समाज के भविष्य बच्चों और युवाओं को बरगला कर भटकाने के लिए टी0वी0, केबल, अश्लील सामग्री, फिल्में, इंटरनेट, माइकल जैक्सन, मैडोना और ब्रिटनी स्पीयर्स हैं ही।
इसलिए आज इस बात की जरूरत आन पड़ी है कि इन स्कूलों-कालेजों के पाठ्क्रम, पद्धति और वातावरण को सुधारा जाए। अध्यापकों को पढ़ाने के लिए प्रेरित या बाध्य किया जाये और छात्रों को पढ़ने के लिए। ट्यूशनों का चलन बंद करना होगा। नकल प्रथा को रोकना होगा। और यह सब सिर्फ कानून बनाने से नहीं होगा। होगा तो सिर्फ और सिर्फ वैचारिक अभियान या कि सशक्त आंदोलन चलाने से। और इसके लिए जागरूक व ईमानदार शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, अध्यापकों, छात्रों और अभिभावकों को आगे आना होगा। तथा एक सशक्त शिक्षा आंदोलन चलना होगा, ताकि यह घटाटोप अंधेरा छंटे और विद्यालय विद्या का मंदिर होकर समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निष्ठापूर्वक निभाएं।
--अरविन्द कुमार
(चित्र गूगल इमेज सर्च से साभार )

टिप्पणियाँ

sarita argarey ने कहा…
एक विद्या मंदिर में हम भी पढ़े थे । "केशर की क्यारियाँ" खूब बाँची । वीर बालक और देशभक्तों की गाथाएँ पढ़-पढ़ कर मन देश्भक्ति से लबरेज़ हो गया । आज हालत ये है कि ना घर के रहे ना घाट के । समाज बदल गया , मगर दिलो दिमाग में कूट पीस कर भरे गये संस्कार पीछा नहीं छोड़ते । इस नई व्यवस्था के इस असामाजिक जीव की स्थिति इतनी शोचनीय हो चुकी है कि लगता है क्यों नहीं झटक पाते पुराने मूल्य कपड़े पर लगी धूल की तरह ...? ज़िन्दगी तो आसान हो जाती ।
Himanshu Pandey ने कहा…
बहुत सार्थक आलेख । धन्यवाद ।
रात के खिलाफ ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
kamna ने कहा…
अच्छा आलेख.बधाई.लिखते रहें.
कामना

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