चलो आखिर इरोम शर्मीला की सुध तो आयी...
इस देश में कितना अजीब और खतरनाक सा चलन चल पड़ा है कि उसी अनशन को अनशन माना जाता है जिसके सिर पर मीडिया खास करके इलेक्ट्रानिक मीडिया अपना वरद हस्त रख देता है ? वरना वह सत्याग्रह नहीं दुराग्रह या आत्महत्या की कोशिश है । मीडिया ने जहाँ अन्ना हजारे को रातों - रात पूरे देश के लिए एक आंधी बना कर गांधी या भगत सिंह बना दिया और अंततः सरकार को काफी हद तक झुकने के लिए मज़बूर कर दिया । कारोबारी बाबा रामदेव को भी एक महान संत, भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने वाला सन्यासी और क्रांतिकारी बना कर अन्ना के कद को काफी हद तक छोटा करने की पुरजोर कोशिश की और उनके खाते पीते अघाए भक्तों को भ्रष्टाचार से लड़ने वाले कटिबद्ध लोगों के रूप में चित्रित करने का भरपूर प्रयास किया तथा उनके और उनके जमावड़े के खिलाफ की गयी पुलिसिया कार्यवाही को लोकतंत्र की हत्या तक की संज्ञा दे डाली। वहीं केवल बिकने वाली चीज़ों को दिखाने और पढ़ाने वाले समूचे मीडियातंत्र को न तो गंगा की पवित्रता के लिए खनन माफियाओं के खिलाफ निरंतर अनशन करने वाले संत निगमानंद की...