चलो आखिर इरोम शर्मीला की सुध तो आयी...

इस देश में कितना अजीब और खतरनाक सा चलन चल पड़ा है कि उसी अनशन को अनशन माना जाता है जिसके सिर पर मीडिया खास करके इलेक्ट्रानिक मीडिया अपना वरदहस्त रख देता है ? वरना वह सत्याग्रह नहीं दुराग्रह या आत्महत्या की कोशिश है मीडिया ने जहाँ अन्ना हजारे को रातों-रात पूरे देश के लिए एक आंधी बना कर गांधी या भगत सिंह बना दिया और अंततः सरकार को काफी हद तक झुकने के लिए मज़बूर कर दिया कारोबारी बाबा रामदेव को भी एक महान संत, भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाने वाला सन्यासी और क्रांतिकारी बना कर अन्ना के कद को काफी हद तक छोटा करने की पुरजोर कोशिश की और उनके खाते पीते अघाए भक्तों को भ्रष्टाचार से लड़ने वाले कटिबद्ध लोगों के रूप में चित्रित करने का भरपूर प्रयास किया तथा उनके और उनके जमावड़े के खिलाफ की गयी पुलिसिया कार्यवाही को लोकतंत्र की हत्या तक की संज्ञा दे डाली। वहीं केवल बिकने वाली चीज़ों को दिखाने और पढ़ाने वाले समूचे मीडियातंत्र को न तो गंगा की पवित्रता के लिए खनन माफियाओं के खिलाफ निरंतर अनशन करने वाले संत निगमानंद की चिंता हुयी और न ही मणिपुर के सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून के खिलाफ पिछले लगभग ग्यारह साल से लगातार अन्न व जल का त्याग किये बैठी इरोम शर्मीला कहीं से कोई खबर बन पायीं। जहाँ निगमानन्द ने लगातार ६८ दिनों के उपवास के बाद चुप-चाप अपने प्राण त्याग दिए वहीं इरोम की हालत भी कम नाजुक नहीं है। वर्ष २००६ से ही सरकार उनको इम्फाल के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल में पुलिस हिरासत में एक अपराधी की तरह रख कर और जबरन नाक के ज़रिये तरल पदार्थ दे-दे कर किसी तरह जीवित रखे हुए है। देखने में दुबली पतली पर अपने लौह विचारो की ताकत से लैस इरोम का पूरी दुनिया के राजनीतिक विरोधों के इतिहास में कोई सानी नहीं है। वे पिछले ११ वर्षों से सत्याग्रह पर है। इसके चलते वे दो विश्व रिकार्ड बना चुकी हैं। सबसे अधिक दिनों तक भूख हड़ताल करने का और सबसे ज्यादा बार जेल जाकर रिहा होने का। अदालत उन्हें बार-बार रिहा कर देती है। पर रिहा होते ही वे फिर से अनशन पर बैठ जाती हैं।
मणिपुर व अधिकांश पूर्वोत्तर राज्यों में ११ सितम्बर १९५८ से थोपे गए सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के विरोध में इरोम ने ४ नवम्बर २००० को अपना सत्याग्रह शुरू किया था। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून ( ए ऍफ़ एस पी ए ) एक अति-अमानवीय कानून है। इससे अशांत घोषित क्षेत्रों में सशस्त्र बालों को विशेष शक्तियां प्राप्त होतीं हैं। इस एक्ट के आधार पर सेना केवल शक के आधार पर ही किसी भी व्यक्ति को, कि वह अपराध करने वाला है या अपराध कर चुका है, गिरफ्तार कर सकती है या बिना सवाल-जवाब किये गोली मार सकती है। इसी की आड़ में सुरक्षा बलों ने मणिपुर में अब तक हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया है। मानवाधिकार के आंकड़ों के अनुसार सिर्फ २००९ में ही ३०० लोगों का क़त्ल कर दिया गया था। यही नहीं, इस कानून की आड़ में पूर्वोत्तर राज्यों में हत्या, बलात्कार, टार्चर, गायब कर देने और गलत गिरफ्तारियों की भरमार हो गयी है। जिससे प्रतिक्रिया स्वरुप वहां नित नए-नए उग्रवादी संगठनों के लिए ज़मीन तैयार हो रही है। इस कानून को लागू करते समय जहाँ मणिपुर में ४ उग्रवादी संगठन थे, वहीं अब ४० हो गए हैं।
इरोम का अनशन कहीं से भी राजनीतिक नहीं है। वे मूलतः एक कवि हैं और उनका यह सत्याग्रह पूरी तरह से मानवीय आधार पर है, जो कि अपने आसपास निरंतर होने वाले हिंसा व मौत के तांडव को देख-देख कर संवेदना की स्वाभाविक प्रतिक्रिया स्वरुप उपजा है। उनकी मांग सिर्फ इतनी है कि इस सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को मणिपुर से हटाया जाय। फिर भी राज्य और केंद्र की सारी शक्तियां इस आन्दोलन का दमन करने पर तुली हुयी और एकजुट हैं। ६ साल तक मणिपुर में अनशन करने के बाद इरोम शर्मीला को लगा कि दिल्ली में बैठे रहनुमाओं तक उनके मौन सत्याग्रह की आवाज़ शायद दूरी की वजह से नहीं पहुँच पा रही है। इसीलिये उन्होंने ३ अक्टूबर २००६ को दिल्ली के जंतर-मंतर पर अपना डेरा डाल दिया। लेकिन यहाँ पुलिस ने उनको आत्महत्या का प्रयास करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। और इम्फाल के जवाहरलाल नेहरू अस्पताल के एक गंदे से कमरे में दाल दिया। यहाँ अब वे एक कैदी की तरह बंद हैं। यहाँ उनके भाई के अलावा और किसी को भी उनसे मिलने की इज़ाज़त नहीं है। माँ तो अब उनसे मिलने इसलिए भी नहीं आतीं कि मिलने से भावुकता बढ़ेगी। और इरोम कमज़ोर पड़ जायेंगी।
२००४ में प्रधानमंत्री की ओर से इस कानून की समीक्षा के लिए गठित जस्टिस रेड्डी समिति ने इस एक्ट को ख़त्म करने की सिफारिश की थी। स्वं प्रधानमंत्री इस कानून को बदल कर इसे मानवीय स्वरुप देना चाहते हैं। पर तब तत्कालीन रक्षामंत्री प्रणव मुखर्जी ने इसे सिरे से ही खारिज कर दिया था। अब सुना है कि सरकार इस कानून पर दुबारा विचार करने को तैयार हो गयी है। और बात-चीत के ज़रिये इरोम की भूख हड़ताल तुडवाने की दिशा में सार्थक पहल कर रही है।
शायद इसे अन्ना हजारे के आन्दोलन का असर ही कहा जायेगा। वैसे भी अन्ना के भ्रष्टाचार के खिलाफ के आन्दोलन में इरोम शर्मीला से जुड़े संगठन "जस्ट पीस फौन्डेशन" ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। उन्होंने शर्मिला की तरफ से अन्ना को मणिपुर आने का न्योता भी दिया है। और संगठन का कहना है कि अन्ना इस के लिए तैयार हो गए हैं। अब देखिये आगे क्या होता है, पर यह एक सच है कि मीडिया की उपेक्षा के कारण यह समूचा देश इरोम के इस सत्याग्रह का सम्मान करने में पूरी तरह से असफल रहा है। जबकि पूरी दुनिया में उनको सम्मान की निगाह से देखा जाता है। २००६ में नोबल पुरस्कार विजेता शिरीन एबादी ने भी अपनी भारत यात्रा के दौरान इरोम के सत्याग्रह को अपना पुरजोर नैतिक समर्थन दिया था। और कहा था कि अगर इरोम शर्मिला मरती हैं तो इसके लिए भारत सरकार पूरी तरह से ज़िम्मेदार होगीइरोम को और अधिक जानने के लिए देखें...
(चित्र डब्ल्यू-आई आर जी डोट ओ आर जी से साभार)

टिप्पणियाँ

मदन शर्मा ने कहा…
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !!!
Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" ने कहा…
aaderniy arvind ji ..maine aapke lekh ko padha.aapka profile dekha..mere karya kshetra babhnan hai jo gorakhpur se kafi paas hai..aapke lekh ne mujhe bhabuk kar diya..per mujhe lagta hai har satya ke ujagar hone ka ek samay hai..media ne sath bhale hi na diya ho..lekin mook aandolan aaur aap jaise sambedansheel sahitykaron ke prayas sach ko ujagar ek na ek din karte hain..nirankush shashkon ka mohbhang karne me hamesha hi ek kawayad chali hai..ab is samaj sudharak ke prayason ko bhi jarur disha milegi..sarkar ko ab janta ki takat ka ahsas hone laga hai..sadar pranam apne blog se judne ke nimantran ke sath
vidhya ने कहा…
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !!!

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