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आज बाबा डार्विन की दो सौवीं सालगिरह है

आज से दो सौ साल पहले यानि कि12 फरवरी १८०९ को "विकासवाद" एवं "योग्यतम की उत्तरजीविता" के सिद्धांत के जनक चार्ल्स डार्विन का जन्म हुआ था। डार्विन की इन क्रांतिकारी स्थापनाओं ने न तब धर्म आधारित तमाम मान्यतायों या आस्थाओं को खंड-खंड किया था, बल्कि धर्म द्वारा संचालित राजसत्ता के समक्ष कई कठिन चुनौतियाँ भी खडी कर दी थीं। डार्विन को तब धर्म विरोधी और नास्तिक कह कर काफी आलोचना की गयी थी। हालाँकि डार्विन के सिद्धांत “योग्यतम की उत्तरजीविता ” का विचार कुछ विवादस्पद है और वो भी शायद इसलिए कि यह कहता है कि धरती पर अंततः वही बचेगा जो शक्तिशाली होगा। सामाजिक,आर्थिक व राजनितिक सन्दर्भों में लागू करते हैं, तो यह नस्लवाद, जातिवाद, पंथवाद यानि कि संक्षेप में कहें तो साम्राज्यवादी विचारों को बल देता हुआ प्रतीत होता है। और डार्विन साम्राज्यवाद के समर्थक लगते हैं। मार्क्स और एंजेल्स बहुत ही सटीक और परिमार्जित तरीके से डार्विन के इस प्रस्थापनाओं को सामाजिक व राजनितिक सन्दर्भों से जोड़ने का काम किया है । बहरहाल---- इसमें कोई शक नहीं कि आज का पूरा विज्ञानं जगत डार्विन और

आख़िर इन विवादों की मंशा क्या है?---चार

ये चिचिआने वाले चिचिआने वालों को सिर्फ़ चिचिआना आता है। और कुछ नहीं। ऐसे लोगों को अगर गले लगा लो, तो चिचिआते हैं। गले न लगाओ तो चिचिआते हैं। इनको सम्मान दो तो बुरा, न दो तो बुरा। ये हर हाल में चिचिआते हैं। ऐसे लोग नहीं चाहते कि कोई इनको टोके-टाके या इनके कार्य-व्यवहार में कोई कमी निकाले। ये अपनी मर्जी चाहे जो करें, कोई इनको चुस्त-दुरुस्त करने की कोशिश बिल्कुल न करे और अगर किसी ने उनको सही रस्ते पर लाने की या उनकी धूल झाड़ कर उनको साफ़-सुथरा करने की कोशीश की, तो ये फ़ौरन चिचिआने लगते हैं व पूरा आसमान सर पर उठा लेते हैं। ऐसे लोग बातें बड़ी ऊँची-ऊँची और लम्बी-चौड़ी करते हैं, उदार, प्रगतिशील, जनवादी व क्रांतिकारी बनते हैं, पर हकीकत में बहुत ही संकीर्ण एवं दकियानूस होते हैं। साफ़ शब्तों में नक़ली और दोहरे चरित्र वाले। ऐसे लोगों की प्रतिभा और बौद्धिकता सिर्फ़ इनका मुखौटा या समाज में प्रतिष्ठा पाने की सुरक्षित छतरी होती है, जो मौका पाते ही तुंरत उतर जाती है। और ये भी रेंज सियार की तरह तुंरत हुआं हुआं करने लगते हैं। ये लोग हमेशा महिलाओं को बराबरी का दर्जा और आजादी देने की बातें क