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प्यार, पुलिया और प्रमोशन (समापन किश्त) आज शाम को जब वह रोज़ की तरह आफ़िस से थक-हार कर घर पहुँचा, तो देखा कि वहां मुहल्ले वालों का मजमा लगा हुआ है। और रीना ने रो-रो कर पूरे घर को ही नहीं अड़ोस-पड़ोस को भी अपने सिर पर उठा रखा है। उसे देखते ही वह बिफर पड़ी---“देखा , तुम्हारी छूट का नतीज़ा।...कलमुंही चेहरे पर कालिख पोत कर भाग गयी।...उसी रामसुमेरवा के लौंडे के साथ।...बड़ी गर्मी सवार हो गयी थी।...मैं बार-बार कहती थी कि जल्दी से उसके हाँथ पीले कर दो।...लौंडिया के लक्षण ठीक नहीं हैं।...ज़रूर कोई गुल खिलाएगी।...पर तुमने मेरी एक न सुनी।...अब झेलो बदनामी।...नाते-रिश्तेदार और बिरादरी वाले सब तुम्हारे मुँह पर थूक रहे हैं। ... अरे खड़े-खड़े मुँह क्या देख रहे हो।...फ़ौरन थाने जाकर रपट लिखाओ।...अबहीं जादे दूर नहीं गये होंगे।...हरामी सब। … ” चीख-चीख कर वह अचानक ही ज़ोर-ज़ोर से छाती पीटने लगी। और देखते ही देखते एक कटे हुए पेड़ की तरह धड़ाम से गश खाकर गिर पड़ी। छोटकू अम्मा-अम्मा कह कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा---“तब से ऐसे ही कर रही है। बाबूजी कुछ कीजिए।”...किसी तरह पानी के छींटे मार-मार कर वह र

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प्यार, पुलिया और प्रमोशन (भाग-एक) वह तेज़ कदमों से भाग रहा था। भागते-भागते कभी वह रुकता। पीछे मुड़ कर देखता। कुछ सोचता। और फिर भागने लगता। कभी तेज़। कभी धीरे। कभी बहुत धीरे। और फिर अचनाक ही बहुत तेज़। इसी तरह भागते , रूकते , पीछे मुड़ कर देखते , सोचते और फिर भागते हुए वह अब मुख्य सड़क पर आ गया था। सड़क पर रोज़ की तरह चल-पहल थी। शोर था। भीड़ थी। तेज़ कारें। मोटर साइकिल। स्कूटर। रिक्शे। और पैदल। एक दूसरे से बेख़बर। अपनी अपनी धुन में मगन। सभी हमेशा की तरह अपने-अपने गंतव्य की ओर भाग रहे थे। वह भी उस भागती हुयी भीड़ में शामिल हो गया। उसके दिमाग में इस समय भारी उथल-पुथल मची हुयी थी। बहुत सारी बातें। ढेरों सवाल। सवालों के धूल भरे बवंडर उसे बुरी तरह से मथ रहे थे। उसे एक-एक कदम उठाना भारी, बहुत मुश्किल पड़ रहा था। चलते चलते उसने सिर उठा कर आसमान की तरफ देखा। ‘उफ़, काफी देर हो गयी है।’ वह बुदबुदाया—‘आज तो मेम साहब चिल्ला चिल्ला कर जान ले लेंगी। और गुस्से में न तो चाय देंगी और न ही नाश्ता। पूरा पेर कर रख देंगी।’ अचानक ही साहब की कोठी एक अजगर के रूप में तब्दील हो गयी। और मुंह फाड़कर उसे अपनी