वह तेज़ कदमों
से भाग रहा था। भागते-भागते कभी वह रुकता। पीछे मुड़ कर देखता। कुछ सोचता। और फिर
भागने लगता। कभी तेज़। कभी धीरे। कभी बहुत धीरे। और फिर अचनाक ही बहुत तेज़। इसी
तरह भागते, रूकते, पीछे मुड़ कर देखते, सोचते
और फिर भागते हुए वह अब मुख्य सड़क पर आ गया था। सड़क पर रोज़ की तरह चल-पहल थी।
शोर था। भीड़ थी। तेज़ कारें। मोटर साइकिल। स्कूटर। रिक्शे। और पैदल। एक दूसरे से
बेख़बर। अपनी अपनी धुन में मगन। सभी हमेशा की तरह अपने-अपने गंतव्य की ओर भाग रहे
थे। वह भी उस भागती हुयी भीड़ में शामिल हो गया।
उसके दिमाग
में इस समय भारी उथल-पुथल मची हुयी थी। बहुत सारी बातें। ढेरों सवाल। सवालों के धूल
भरे बवंडर उसे बुरी तरह से मथ रहे थे। उसे एक-एक कदम उठाना भारी, बहुत मुश्किल पड़
रहा था। चलते चलते उसने सिर उठा कर आसमान की तरफ देखा। ‘उफ़, काफी देर हो गयी है।’
वह बुदबुदाया—‘आज तो मेम साहब चिल्ला चिल्ला कर जान ले लेंगी। और गुस्से में न तो
चाय देंगी और न ही नाश्ता। पूरा पेर कर रख देंगी।’ अचानक ही साहब की कोठी एक अजगर
के रूप में तब्दील हो गयी। और मुंह फाड़कर उसे अपनी ओर खींचने लगी। उसने बड़ी मुश्किल
से अपने कदमों को ज़मीन पर जमाया। और मजबूती से खड़ा हो गया। इस समय वह अपने आप को
बहुत ही थका, कमज़ोर और शिथिल महसूस कर रहा था। बूढ़ा। बेबस। और बेजान।
उसे अचानक खाट
पर पड़ी बीमार रीना की याद आ गयी। उसे चिंता हुयी। और वह परेशान हो गया। रीना की
याद आते ही शांति का ख्याल भी आकर उसे बुरी तरह से कोंचने लगा--‘पता नहीं, इस समय
वह कैसी और किस हाल में होगी? कहीं नादानी
में किसी हादसे का शिकार न हो जाये...आजकल किसी का क्या भरोसा?’ उसने सोचा। दोस्तों के साथ मिलकर सामूहिक
बलात्कार करने या दलालों द्वारा मासूम लड़कियों को बहला-फुसला कर बाज़ार में ले जा
कर बेचने की ढेरों खबरें अचानक ही उसके दिमाग़ में कौंध गयीं। वह अंदर तक काँप उठा।
और उसके कदम थरथराने लगे।
‘तो क्या पहले
थाने चला जाये? कुछ लोगों को जुटा कर रिपोर्ट लिखवाई जाये या साहब को बीच में डाल
कर पूरे मामले को शांति पूर्वक सुलझा लिया जाये।...पर अगर साहब ने बीच में
पड़ने से मना कर दिया तो?...कहीं ऐसा न हो कि शांति के चक्कर में श्याम वाला काम भी
ख़राब हो जाये?...तो क्या वह
सब कुछ यूं ही भूल जाये? रीना के दर्द
भरे आँसू। बंटी की छोटी जाति। शांति द्वारा मुंह पर पोती गयी कालिख। बिरादरी और
इलाके में हुई परिवार की बेइज़्ज़ती।...क्या वह इन सब पर मिट्टी डाल दे? और इसे नियति
का खेल मानकर चुप-चाप बैठ जाये?
रोज की तरह कोठी पर जाये? मन लगा कर अपनी ड्यूटी बज़ाये?’
साहब उसके लिए
एक भगवान की तरह थे। वह अरसे से श्रद्धा पूर्वक उनकी तपस्या कर रहा था। उसे पक्का
भरोसा था कि साहब उससे और उसकी अटूट लगन, निष्ठा और भक्ति से एक न एक दिन अवश्य
प्रसन्न होंगे। और उसे उसका मनचाहा वरदान दे देंगे। इसीलिये तो, आज तक उसने जो कुछ
भी किया है, वह अपने ईश्वर को खुश करने की गरज से ही किया है। आफिस में उनके लिए
पर्दा उठाते, उनको पानी पिलाते, खाली टाइम में उनके सिर की चम्पी करते, कान से मैल
निकालते, फाईलों को इस दफ्तर से उस दफ्तर ले जाते, उनकी गाड़ी को अपने गमछे से साफ़
करते और कोठी पर बिना कोई चूं-चपड़ किये फूलों में पानी डालते, मछलियों को दाना खिलाते,
कुत्तों को टहलाते, सब्जी लाते, खाना बनाने में दुलारी का हाँथ बटाते और अन्दर
बाहर की साफ़-सफाई करते हुए अपना मनचाहा बरदान पाने का उसका सपना दिन पर दिन जवान
हो रहा था।
लेकिन इस समय वह
अपने सपने और घर की चिंता के बीच एक अज़ीब सी उहापोह में फँसा डूब-उतरा रहा था। और
जितना ही वह सोचता दुविधा के दलदल में और गहरे तक फंसता चला जाता। साँप छछून्दर की
गति की तरह उसे न तो कोठी पर जाने का मन कर रहा था। और न ही थाने पर जा कर रिपोर्ट
लिखवाने का। और घर? आखिर वह किस मुंह से घर लौट कर जाए? सुस्ता कर ठंडे दिमाग़ से
सोचने के लिए वह किनारे की पुलिया पर बैठ गया। और बीड़ी सुलगा कर अपने आप से
गुत्थम-गुत्था होने लगा।
सूरज दूर
पेड़ों के पीछे जाकर छुपने की तैयारी कर रहा था। शाम का धुन्धलका आसमान से उतर कर
धीरे-धीरे चारों तरफ अपने पैर फैला रहा था। ऊपर आसमान में चिड़ियों की टोलियाँ शोर
मचाते हुए अपने-अपने घोंसलों की तरफ लौट रहीं थीं। आज़ाद परिंदों की यह चहचहाहट आज
उसे कर्कश और चिढ़ाने वाली लग रही थी। जाँघ के पास उसे कुछ चलता हुआ महसूस हुआ। एक
लाल चींटा वहाँ बेफिक्री से रेंग रहा था। उसने उंगलियों से उसे पकड़ा और मसल कर दूर
फेंक दिया। अचानक ही एक काला कुत्ता उसके पास आकर दुम हिलाने लगा। और कोई दिन होता
तो वह उसे पुचकारता। सहलाता। पर आज उसने उसे बुरी तरह से दुत्कार कर भगा दिया।
कुत्ते ने भी शायद उसके चेहरे पर उठती-गिरती चिंता की लहरों को देखा। महसूस किया।
और दुम हिलाते हुए खेतों की ओर चला गया। कुत्ते को देख कर उसे याद आया कि ऐसे ही
कुछ आवारा कुत्तों के कारण उस दिन उसके पूरे शरीर में बारह-तेरह जगह टाँके लगे थे।
और उसे पूरे दस दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था। और वह भी सिर्फ मेमसाहब और
बिटिया के आंसुओं की वजह से।
अचानक ही वह
पूरा वाकया उसकी आँखों के सामने किसी फिल्म की तरह कौंध गया। रोज़ की तरह उस दिन
शाम को जब वह कोठी पर पहुंचा, तो देखा कि वहां सबके चेहरे उदास, परेशान और लटके
हुए हैं। थाना पुलिस की बातें हो रही हैं। साहब भी हैरान परशान हो कर इधर उधर फोन
कर रहे हैं। पूछने पर पता चला कि साहब की नयी वाली बिलायती कुतिया “जूलिया” कहीं
गुम हो गई है। या तो कोई उसे चुरा कर ले गया है या मौका पाकर गेट से निकल कर वह
खुद ही कहीं भटक गयी है। और जब से वह गायब हुयी है तब से साहब की छोटी वाली बिटिया
का रो-रो कर बुरा हाल है। और चूंकि बिटिया रो रही है, इसलिए मेमसाहब भी रो रही हैं।
बस फिर क्या था? उनके आंसुओं को देख कर वह इतना द्रवित हो गया कि उसके अन्दर की सारी
वफादारी अचानक ही जाग कर बाहर आ गयी। उसने साहब से कहा---“आप इन लोगों को सम्हालिए।
और परेशान मत होइए। कुत्तों का सीजन चल रहा है। वह ज़रूर भटक कर कुत्तों के झुण्ड
के साथ कहीं दूर निकल गयी होगी।”
साहब को उसकी
इस नादानी भरी बात पर गुस्सा आ गया---“क्या बात करते हो? हम तो उसे हर बार सूई
लगवाते हैं?” इस पर मेम साहब ने साहब को याद दिलाया कि इस बार तो अभी सूई लगी ही
नहीं है।
फिर क्या था?
उसके साथ रामसुमेर ड्राईवर और दुलारी “जूलिया को खोजने के अभियान में जुट गए। और
जैसा कि उसका अंदाज़ा था, “जूलिया” पुलिया के नीचे मोहल्ले के पांच आवारा कुत्तों
के बीच में फंसी हुयी थर-थर काँप रही थी। सीजन के कारण कुत्ते जोश में थे। और
खूंखार हो रहे थे। रामसुमेर और दुलारी तो दूर खड़े सिर्फ हुल-हुल और हट-हट करते रहे।
पर उसने न आव देखा न ताव। फटाक से कुत्तों के बीच घुस कर “जूलिया” को बचाने लगा। जोश
से भरे हुए कुत्ते बिफर पड़े। और उन्होंने उस के ऊपर हमला बोल दिया। उसे जगह-जगह काटा।
नोंचा। मांस निकाल दिया। पर बुरी तरह से घायल होने के बावजूद वह “जूलिया” को सही
सलामत निकाल लाया। खून से लथफथ जब वह वापस कोठी पर पहुंचा, तो दर्द से बुरी तरह बिलबिला
रहा था। पर साहब, मेम साहब और बिटिया रानी की आँखों से छलकने वाली शाबाशी और खुशी
ने उसके सारे दर्द को फूंक कर एकदम से उड़ा दिया था। साहब ने अम्बुलेंस मंगवा कर
उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती करवाया था। और कृतज्ञता से उसका हाँथ पकड़ कर कहा
था---“हम तुम्हारा यह एहसान कभी नहीं भूलेंगे।” और उसे पूरा विश्वास है कि वाकई
साहब वह बात कभी भी नहीं भूलेंगे।
पुलिया से
थोड़ा आगे चल कर सड़क दो रास्तों में बंटी हुई थी। बाँयी तरफ का रास्ता सीधे थाने
की तरफ जाता था। रीना की चीखों के हिसाब से वह शांति की सकुशल वापसी और लुटी हुयी
इज्जत और चेहरे पर पुती हुयी कालिख को साफ करने का सही रास्ता था। उसके सीने के
घाव तभी भरेंगे जब शांति को घसीट कर घर लाया जायेगा। और बंटी को भर इच्छा मार-पीट
कर जेल भेज दिया जायेगा। अब यह काम चाहे पुलिस करे या श्याम के आवारा-गुंडें
दोस्त। रीना के लिए यह जीने-मरने की लड़ाई थी। जिसे वह हर हाल में जीतना चाहती थी।
वह जीतेगी तभी जीएगी। नहीं तो हार और बदनामी का दंश लेकर वह अपनी कमज़ोर साँसों को ज्यादा
दिनों तक नहीं खींच पायेगी।
दाहिनी तरफ का
रास्ता खेतों और बगीचों के बीच से होकर कोठी की ओर जाता था। साहब की कोठी। जहाँ उसने
अपने इकलौते सपने को अरसे से गिरवीं रख छोड़ा था। उसे पक्का विश्वास था कि इस बार
वांट आते ही साहब श्याम को अपने दफ्तर में या कहीं और चपरासी की नौकरी ज़रूर दिलवा
देंगे। और तब उस एक कृपा से उसका सब कुछ ठीक हो जायेगा। रीना का ईलाज़। शांति की
शादी। घर की मरम्मत। उधार-कर्ज़ा। और छोटकू की पढ़ाई। पर लगता है कि शांति को उसके
इस सपने पर कत्तई भरोसा नहीं था। तभी तो बंटी के साथ मिल कर उसने अपने लिए एक अलग से
सपना बुन लिया था। उसे अपना सपना और अपना भविष्य परिवार के सपने और भविष्य से
ज़्यादा ज़रूरी लगा था। तभी तो...।
शांति की चिंता आकर उसे फिर से कचोटने लगी।
खेतों और
बगीचों के पास से पुलिया के नीचे से होकर बहने वाला नाला गुज़रता था। उसने देखा कि
वहाँ से रुक-रुक कर बीड़ी का धुआँ उठ रहा है। लोग-बाग रोज़ की तरह आज भी वहां दिशा-मैदान
कर रहे थे। उसके जी में आया कि वह जोरों से चीखे। और एक पत्थर उठा कर उस तरफ उछाल
दे। आज पता नहीं क्यों, उसे लोगों का इस तरह से खुले में बैठ कर निवृत होना बड़ा अजीब,
घटिया और बुरा लग रहा था। उसे वाकई आज बहुत गुस्सा आ रहा था। हर एक के ऊपर। खुद
अपने ऊपर भी। बैठे-बैठे वह अचानक ही बड़बड़ाने लगा...‘स्साला, कोल्हू का बैल बन
गया हूँ...पूरे दिन ख़टता रहता हूँ...किसके लिए?...पर किसी को भी मेरी चिंता, मेरी
परवाह नहीं है...जिसे देखो वही अपनी राह चल रहा है...लानत है, स्साली ऐसे ज़िंदगी
पर!’ वह बुदबुदाया। और उदास हो गया। (क्रमशः)
---अरविन्द कुमार
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