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जुलाई 20, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कहानी

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उमस के बावजूद पिछले कई दिनों से यूं ही पानी, धूप और उमस का कठिन और भ ा री क्रम चल रहा था. बाहर तेज ़ बरसात हो रही थी. वे अपने कमरे के कोने में बिछी चारपाई पर लेटे हुए थे. चित. छत को निहारते हुए. चुपचाप. निस्पंद. लगभग मुर्दों की तरह. वह लगातार सिगरेट पी रहा था. और वह उसके धुएं में लिपटी किसी अंधेरे शून्य में तैर रही थी. उन दोनों के भीतर शायद एक भ ा री कोलाहल मचा हुआ था. वहॅां कोई बड़ी उथल-पुथल चल रही थी. वे चुप थे, पर अन्दर ही अन्दर अपनी-अपनी उलझनों को सुलझाने की पुरजोर कोशिश करते हुए अपने आप से जूझ रहे थे. -----सो गए क्या? -----नहीं तो. -----क्या सोच रहे हो? -----कुछ भी तो नहीं. एक लम्बी साँस के साथ उसने ढेर सारा धुआं उगल दिया. सिगरेट की र ा ख को काफी समय से झाड ़ा नहीं गया था. इसलिए उस के अगले सिरे पर राख की एक लम्बी लड़ी बन गयी थी. उसको गिराने के लिए उसने सिगरेट को धीरे से दीवार से छुआया. र ा ख चारपाई पर गिरी. और चादर पर बिखर गयी. इस समय चारपाई को दीवार से स टा कर रखा गया था. पांच सौ अस्सी रुपये महीने के किराये का उनका पूरा कमरा यानि कि मक ा न मालिक का बेकार पड़ा गैराज