कविता--- सोन चिरैया ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया तुम जो आकर चुपचाप बैठ गयी हो मेरे इस जीवन की मुंडेर पर सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? और क्यों आई हो अचानक इस तरह मेरी ढलती उम्र के इस पड़ाव पर अब तो साँसों की बाती भी लपलपा कर कभी भी महाशून्य में विलीन होने को उद्दत है सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? तुम सच हो या कि हो कोई मीठा सा झूठ मेरी कोई अतृप्त कल्पना या कि हो कोई छलावा मृग मरीचिका ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो? और क्यों आई हो? अचानक इस तरह मेरे जीवन की मुंडेर पर कहीं तुम मेरी गहरी नींद का कोई सुन्दर सपना तो नहीं कि अचानक जब भी आँखें खुलें तो न सामने तुम रहो और न ही वो सपना सब कुछ टूट कर इस कदर बिखर जाये कि उभर आयें दिलो दिमाग पर फिर से कभी न भरने वाली कई और गहरी और कभी न भरने वाली खरोंचें जानती हो समय के क्रूर थपेड़ों से लगातार लहूलुहान हुआ मैं अब कोई भी नया ज़ख्म झेल नहीं पाऊंगा ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया सच सच बताना कि आखिर तुम कौन ...
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