कविता---
सोन चिरैया
ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया
तुम जो आकर चुपचाप बैठ गयी हो
मेरे इस जीवन की मुंडेर पर
सच सच बताना
कि आखिर तुम कौन हो?
और क्यों आई हो अचानक इस तरह
मेरी ढलती उम्र के इस पड़ाव पर
अब तो साँसों की बाती भी
लपलपा कर कभी भी महाशून्य में विलीन होने को उद्दत है
सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो?
तुम सच हो या कि हो कोई मीठा सा झूठ
मेरी कोई अतृप्त कल्पना
या कि हो कोई छलावा
मृग मरीचिका
ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया
सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो?
और क्यों आई हो?
अचानक इस तरह
मेरे जीवन की मुंडेर पर
कहीं तुम मेरी गहरी नींद का कोई सुन्दर सपना तो नहीं
कि अचानक जब भी आँखें खुलें
तो न सामने तुम रहो
और न ही वो सपना
सब कुछ टूट कर इस कदर बिखर जाये
कि उभर आयें
दिलो दिमाग पर फिर से कभी न भरने वाली
कई और गहरी और कभी न भरने वाली खरोंचें
जानती हो
समय के क्रूर थपेड़ों से लगातार लहूलुहान हुआ मैं
अब कोई भी नया ज़ख्म झेल नहीं पाऊंगा
ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया
सच सच बताना कि आखिर तुम कौन हो?
और क्यों आई हो?
अचानक इस तरह
मेरे जीवन की मुंडेर पर
कहीं तुम उन दन्त कथाओं की
वह सोन चिरैया तो नहीं
जो जब हंसती थी तो फूल झरते थे
और रोती थी
तो उसके आँखों से आंसू नहीं मोती टपकते थे
मैंने भी अक्सर यह महसूस किया है
कि जब तुम मन से खुश होती हो
तो यह समूची आकाशगंगा खिलखिलाने लगती है
और जब उदास होती हो
तो यह धरती और आसमान ही नहीं
सूरज, चाँद सितारे और ये सभी ग्रह-नक्षत्र
अवसादग्रस्त हो जाते हैं
तो क्या तुम वही सों चिरैया हो
जो अब किस्सा कहानियों के
पिजड़े से निकल कर
आ गयी हो मेरी ज़िंदगी में
ऐ सुनहली काया और बोलती आँखों वाली चिड़िया
सच सच बताना कि आखिर तुम क्या हो?
और क्यों आई हो?
अचानक इस तरह
मेरे जीवन की मुंडेर पर
वैसे, तुम चाहे जो भी हो
सत्य हो या कि असत्य
कल्पना हो या कि सपना
या कि कोई मृग मरीचिका
तुम चाहे जैसी भी हो
न चाहते हुए भी
अब धीरे धीरे
मेरा अवलम्ब बनती जा रही हो
एक आदत
मुकम्मिल जीवन रेखा
जैसे कि लाईफ़ सपोर्ट
सुनो ऐ, सों चिरैया
अगर मैं कोई ईश्वर होता
तो बना देता तुम्हारे लिए एक ऐसी दुनिया
जहाँ तुम उन्मुक्त होकर
चहचहाती
नृत्य करती
स्वतंत्र होकर
हर जगह
हर दिशा में
और बना देती इस बदरंग बेज़ान हुई धरती को
अपने खूबसूरत परों की तरह
अगर मैं कोई राजा होता
तो छुपा कर रख देता
तुम्हें किसी ऐसे सुरक्षित तहखाने में
जहां तुम बुनन सकती अपने सपनों का नीड़
भयमुक्त होकर
और फिर चुपके से छुपा देता अपनी भी जान
तुम्हारे ह्रदय के किसी कोटर में
जहाँ किसी क्रूर और क़ातिल की निगाह
कभी पहुँच ही नहीं पाती
फिर लिखता इत्मीनान से
प्रेम कवितायें
मुक्ति की चाह में
हरपल संघर्ष करते
जीते, मरते हारते, जीतते लोगों के लिए
पर मैं न तो सुर हूँ
न असुर
न कोइ राजा और न ही कोई धर्माधिराज
न तो मुझे किसी समुद्र मंथन में
कोई अमृत मिला है
और न ही जलधि के गर्भ से निकला कोई अकूत खजाना
मेरे हिस्से में तो आया है सिर्फ और सिर्फ विष
लेकिन मैं कोई शिव नहीं
कि अपने प्रेम को सम्पूर्णता में पाने के लिए
बार बार जन्म लूं
इसीलिये तो मैंने
अपने मन आँगन के एक सुरक्षित कोने में
सहेज कर रख छोड़ा है
तुम्हारे लिए मुट्ठी भर चुग्गा और अंजुरी भर ठंडा पानी
ताकि तुम्हें कभी भी
इधर उधर उधर भटकना न पड़े
प्यार की किसी घनी शीतल छाँव के लिए
अपने सुनहले पंखों को
झुलसाते हुए
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