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क्या मुसलमान सिर्फ वोट बैंक हैं?

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यह इस देश और मुसलमानों का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि तमाम राजनीतिक पार्टियों द्वारा लगातार मुस्लिम-मुस्लिम की रट लगाये जाने के बावजूद उनकी कुल स्थिति में कहीं कोई सुधार नहीं हो रहा है. बल्कि आंकड़ें तो यह बताते हैं कि आज़ादी से लेकर आज तक उनकी स्थिति दिन पर दिन बदतर हुयी है. उदहारण के तौर पर आज़ादी के समय सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की संख्या जहाँ छः प्रतिशत थी, आज वही घट कर लगभग डेढ़ प्रतिशत रह गयी है. वजह साफ़ है. बंटवारे के समय अधिकतम क्रीमी लेयर के लोग तो पाकिस्तान चले गए. यहाँ पर रह गए गरीब, किसान और मज़दूर. और थोड़े बहुत कुलक, ज़मींदार और नवाब टाईप के लोग जो यहाँ रह भी गए, उन्होंने सत्ता के गलियारों में अपनी हिस्सेदारी मजबूत करके अपने ही बहुसंख्यक समुदाय की तिलांजली दे दी है. सच्चर समिति   की रिपोर्ट के अनुसार आज बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति इस देश के अनुसूचित जन जातियों से भी अधिक दयनीय है. गरीबी और भविष्य में कोई ढंग की नौकरी न मिल पाने के अंदेशे से अधिकांश मुसलमान अपने बच्चों को मुकम्मिल शिक्षा नहीं दिलवा रहे. वे या तो किसी मैकेनिक के यहाँ लग कर तक