कहानी
प्यार, पुलिया और प्रमोशन (समापन किश्त)
आज शाम को जब
वह रोज़ की तरह आफ़िस से थक-हार कर घर पहुँचा, तो देखा कि वहां मुहल्ले वालों का
मजमा लगा हुआ है। और रीना ने रो-रो कर पूरे घर को ही नहीं अड़ोस-पड़ोस को भी अपने
सिर पर उठा रखा है। उसे देखते ही वह बिफर पड़ी---“देखा, तुम्हारी छूट का नतीज़ा।...कलमुंही चेहरे
पर कालिख पोत कर भाग गयी।...उसी रामसुमेरवा के लौंडे के साथ।...बड़ी गर्मी सवार हो
गयी थी।...मैं बार-बार कहती थी कि जल्दी से उसके हाँथ पीले कर दो।...लौंडिया के
लक्षण ठीक नहीं हैं।...ज़रूर कोई गुल खिलाएगी।...पर तुमने मेरी एक न सुनी।...अब
झेलो बदनामी।...नाते-रिश्तेदार और बिरादरी वाले सब तुम्हारे मुँह पर थूक रहे हैं।...अरे
खड़े-खड़े मुँह क्या देख रहे हो।...फ़ौरन थाने जाकर रपट लिखाओ।...अबहीं जादे दूर नहीं
गये होंगे।...हरामी सब।…”
चीख-चीख कर वह
अचानक ही ज़ोर-ज़ोर से छाती पीटने लगी। और देखते ही देखते एक कटे हुए पेड़ की तरह
धड़ाम से गश खाकर गिर पड़ी। छोटकू अम्मा-अम्मा कह कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा---“तब
से ऐसे ही कर रही है। बाबूजी कुछ कीजिए।”...किसी तरह पानी के छींटे मार-मार कर वह
रीना को होश में लाया। और चारपाई पर लिटा कर पंखा झलने लगा। चूल्हे में पड़ी
दोपहर की अधजली लकड़ियाँ राख में मुंह छुपा कर सुस्त पडी थीं। और रात की बुझी हुयी
कालिख पुती लालटेन कोने में सहमी सिसक रही थी। और पूरे घर में मातम छाया हुआ था।
श्याम अपने आवारा, बेरोज़गार और
गुंडा दोस्तों के साथ बंटी की तलाश में ज़मीन-आसमान एक कर रहा था। उसने रीना को
समझाया। सांत्वना दी। पानी में नींबू-नमक और चीनी घोल कर पिलाया। मुहल्ले वालों को
हाँथ जोड़ कर अपने-अपने घर जाने का आग्रह किया। और छोटकू को माँ की देखभाल करते
रहने की हिदायत देकर तीर की तरह घर से बाहर निकल गया। बाहर तो वैसे वह हर शाम को निकलता
है। पर थोड़ा सुस्ता कर चाय पीने के बाद। नाश्ता-पानी उसे साहब की कोठी पर मिल
जाता है। और देर हो जाने पर कभी-कभार खाना भी।
घर से निकला
तो वह थाने के लिए ही था। पर कुछ कदम चलने के बाद से ही उसका इरादा हिचकोले खाने
लगा।...‘थाने वाले क्या करेंगे?
क्या मेरी या मोहल्ले वालों की बात मान कर फ़ौरन रिपोर्ट लिख लेंगे?...और रिपोर्ट लिख भी लेंगे तो क्या वाकई कोई
कारगर कार्यवाही करेंगे?...पता नहीं, वह
घाघ दरोगा अबकी बार कितने रुपयों की माँग करे?...लेकिन रिपोर्ट में मैं लिखवाऊंगा क्या?'
उसे याद आया
कि इससे पहले भी श्याम के केस में उसे थाने के कई चक्कर लगाने पड़े थे। हज़ारों
रुपये यूँ ही पानी की तरह बह गये थे। उस समय भी शर्म और संकोच से उसने साहब को बीच
में नहीं डाला था। डालता भी कैसे?
सच्चाई जानने के बाद क्या वे वाकई श्याम को बचाते? और अगर बचा भी लेते तो क्या मौका आने पर
उसके ज़ुआरी बेटे की नौकरी के लिए अपनी सिफारिश करते? श्याम मोंटू के साथ ज़ुआ खेलते हुए पकड़ा
गया था। ‘मोंटू स्साला!’ वह बुदबुदाया। और उसकी मुट्ठियाँ कस गयीं।
अचानक ही उसे
अपने आप पर गुस्सा आने लगा...‘श्याम पर शुरू से ही पाबंदी क्यों नहीं लगाई?...उसे आवारा दोस्तों की सोहबत छोड़ने के लिए
कभी डांटा-फटकारा मारा-पीटा क्यों नहीं?...शांति पर भी इतना
भरोसा क्यों किया?...उस पर भी कभी
कोई लगाम क्यों नहीं कसी?...उसके
बदले-बदले हाव-भाव और आज़ाद हो कर उड़ने के लिए बेताब निकलते हुए परों को देख कर
भी उसने अनदेखा क्यों किया?...उस दिन...ठीक
उसी दिन शांति का गला क्यों नहीं काट दिया, जब उसकी खिलखिलाहट पिछवाड़े के अंधेरे
खंड से निकल कर पहली बार उसके कानों को चीरती हुई चली गयी थी?’
गोधुली बेला
थी। वह अभी-अभी आफ़िस से लौटा था। बेटी की खनखनाती हँसी ने उसे चौंकाया ही नहीं
स्तब्ध भी कर दिया था। उसे जोरों का करेंट लगा था। और यकायक ही अनेकों नागफनियाँ
उसके शरीर से लिपट गयी थीं। एक चंचल हिरनी की तरह हँसती-कुलांचे मारती हुयी वह जब
घर में घुसी, तो वह लगभग चीख पड़ा था---“खंड में कौन था तेरे साथ?...और वहाँ अंधेरे में क्या कर रही थी?” पर तभी उसकी निगाह उसकी मुट्ठी में छिपे मोबाईल फोन पर
पड़ी---“यह कहाँ से आया तेरे पास?”
पर न तो वह
डरी थी। न ही घबराई। उसने बड़ी निश्च्छलता से जवाब दिया था---“बंटी का है, बाबूजी। उसने रखने के लिए
दिया है। कल ले जाएगा।” उसने पूछना चाहा कि वह यहाँ क्यों आया था? और उसने यह तुझे ही क्यों दिया है? पर जवान-सियान बेटी की मासूमियत से इस तरह
थुक्कम-फ़ज़ीहत करना उसे मुनासिब नहीं लगा था। ‘जवान लड़की है। दिन भर घर बाहर का
काम करती है। हो गयी होगी बंटी से जान-पहचान। दोस्ती। इसमें बुराई क्या है?’ रीना
के लाख उकसाने के बावज़ूद उसने अपनी आँखों को बंद करके ज़ुबान को तालू से चिपका
लिया था।
शांति इसी तरह बेहिचक अंधेरे खंड में आती-जाती रही। बंटी शाम सवेरे घर के
चक्कर काटता रहा। रीना अक्सर बड़बड़ाती और उलाहने देती रही। पर शांति की तरफ से वह
हमेशा निश्चिंत बना रहा। न तो कभी बंटी को टोका-टाका और न धमकाया। और न ही कभी
रामसुमेर ड्राईवर के पास जाकर उसकी कोई शिकायत की। और अगर शिकायत करता भी, तो किस बात की
करता? अगर कहीं वह पलट कर यह कह देता कि मेरे लौंडे की शिकायत करने के बजाय, तू
अपनी लौंडिया को काबू में रख। तब?
अब थाने जाकर
वह किसकी और किस बात की रिपोर्ट लिखवाएगा? बहला-फुसला कर शांति को भगाने की रिपोर्ट?
या जबरन अगवा कर के फिरौती माँगने की?...शांति
को अपनी मर्ज़ी से, अपनी पसंद के लड़के से शादी करनी थी, तो कर लेती।...लेकिन कम
से कम उसे बता तो देती।...लेकिन अगर वह बता भी देती तो क्या वह गैर बिरादरी और वो
भी एक छोटी जाति के बंटी के साथ खुशी-खुशी उसका लगन करने के लिए तैयार हो जाता?...और अगर वह तैयार हो भी जाता, तो क्या रीना, श्याम और सारे नाते-रिश्तेदार भी तैयार हो
जाते? बिरादरी तैयार होती?...न होते ससुरे! लेकिन बेटी तो खुश रहती।
उसका घर तो अच्छे से बस जाता।...अब तो न माया मिली, न राम।
शान्ति गयी तो गयी,
पूरे परिवार की इज़्ज़त भी मिट्टी में मिल गयी।...लेकिन वह इस बात की रिपोर्ट
लिखवाएगा कैसे?...जाति-बिरादरी के नाम पर तो साहब भी उखड़ जायेंगे। कहीं
उन्होंने इसी बात को इशू बना लिया तो?...तब तो उसके सारे किए धरे पर पानी फिर जायेगा।
उसने सोचा---‘शांति
तो अपनी मर्ज़ी से गयी है।...कोई दूध पीती बच्ची तो है नहीं।...अपना भला बुरा सब
सोच-समझ कर ही तो घर से निकली होगी।...बंटी भी बालिग है।...क्या पता दोनों की निभ
ही जाए।...और उनका घर वाकई अच्छे से बस जाए।...ऐसे में थाना और कचहरी के चक्कर
कटवा कर उनकी छीछालेदर करवाने से फ़ायदा?...अगर उनकी अच्छे से निभ गयी, तो ठीक। और
नहीं निभी, तो खुद ही कहीं कुंए में जाकर डूब मरेगी।...या फिर पछतावे के आसूं बहाते
हुए वापस आ जायेगी। तब की तब देखी जायेगी।...रीना को वह सम्हाल लेगा। श्याम को भी
समझा-बुझा कर शांत कर देगा।...आन-बान और शान की लड़ाई का खेल तो बड़े लोग खेलते हैं।
हम गरीबों की तो सारी लड़ाई वजूद की लड़ाई होती है।...पर वह सिर्फ बुरा और अनिष्ट के
बारे में ही क्यों सोच रहा है?...सब कुछ ठीक-ठाक और अच्छा भी तो हो सकता है।...क्यों
न हम सब मिल-मिलाकर इसे एक अच्छा और मजबूत रिश्ता बना दें?...क्यों न साहब को बीच
में डाल कर शान्ति और बंटी के इस कदम को प्यार का एक खूबसूरत रूप दे दें?’
उसने अपने आप
को समझाया। तैयार किया। और अचानक ही वह अपने आप को हल्का महसूस करने लगा। उसने
तसल्ली भरी एक लंबी सांस ली। उठा। और तेज़-तेज़ कदमों से कोठी की तरफ़ चल पड़ा। कोठी
में घुसते ही उसने देखा कि मेमसाहब तालाब की मछलियों को दाना डाल रही हैं। उसे
देखते ही वे चिल्लाईं---“यह तुम्हारे आने का टाइम है? देखो तो ज़रा, क्या टाईम हो रहा
है? देख रही हूँ कि अब तुम्हारे ऊपर भी चर्बी चढ़ने लगी है। काम नहीं करना है, तो
साफ़-साफ़ बोल दो। साहब किसी और को बुला लेंगे। तुम क्या समझते हो? अगर तुम नहीं
आओगे, तो मेरा काम ही नहीं होगा। आज दुलारी और रामसुमेर ने तुम्हारा सारा काम
सुलटा दिया है। अब तुम गाड़ियों को साफ़ करो। फूलों को पानी दो। और किचेन में जाकर
दुलारी की हेल्प करो।”
इससे पहले कि
वह कुछ बोले या देर से आने के लिए माफी मांगे, शाम की सैर के लिए निकल रहे साहब की
निगाह उस पर पड़ गयी---“अरे आओ भाई, आओ। मैं तो तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था।...अरे
सुनती हो, पहले इसका मुंह मीठा कराओ। इसका प्रमोशन हो गया है। अब यह हमारे आफिस का
बाबू बन गया है। बाबू। अभी अभी शाम को आर्डर आया है। बधाई हो...मैडम, इसका मुंह तो
मीठा कराओ।”
इसके बाद साहब
ने और क्या क्या कहा? मेम साहब ने क्या कहा? रामसुमेर ने उसके पास आकर क्या कुछ
कहने की कोशिश की। और दुलारी ने हंस कर उससे क्या कहा? उसे कुछ भी सुनायी नहीं पड़ा।
वह बस चुपचाप किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो कर साहब का मुंह देखता रहा। उसकी समझ में यह
बिलकुल नहीं आ रहा था कि वह साहब से क्या कहे? मुस्कुरा कर उनको धन्यवाद दे, हंस
कर खुशी ज़ाहिर करे या फिर फूट-फूट कर रोने लगे। (समाप्त)
---अरविन्द कुमार
[यह कहानी "कथा क्रम" के "अप्रैल-जून 2015" के अंक में प्रकाशित हुआ है]
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