बसंत पंचमी का यह दिन----

आज बसंत पंचमी है. आसमान में उड़ती हुई पतंगों को देख कर बचपन की ढेर सारी यादें ताज़ा हो गयीं. बचपन बीत गया,जवानी आयी और अब वह भी हाथ से फिसलती जा रही है. पर आसमान में सिर ताने उड़ती हुई लहराती पतंगें मुझे आज भी रोमांचित करती हैं. आज़ादी की चाहत की तरह. बचपन में हम अपनी पतंगें और माँझा ख़ुद बनाया करते थे. क्या जोश होता था ? सब कुछ अपना. अपनी ज़मीन, अपना आकाश, अपनी हवा और अपनी बाल सुलभ पतंगबाजी की प्रतियोगिता. हार में भी जीत और जीत में भी हार.
लेकिन अब समय बदल गया है. तो अब उस तरह के खुले मैदान हैं और ही उतनी साफ़ सुथरी खुली हवा. पतंग, माँझा, चरखी और डोर सब ब्रांडेड हो गए हैं. और पतंगबाजी हुड़दंग. और हर हाल में जीतने की लालसा. हर साल जाने कितने बच्चे इस पतंगबाजी के चक्कर में अपनी जान गवाँ बैठते हैं. कभी छत से गिरकर और कभी करंट लगने के कारण. पतंगों को भी देखिये तो ऐसा लगता है कि आसमान में पतंगें नहीं रुपये उड़ रहे हैं. वाकई बाज़ार ने हमारे तीज त्योहारों को भी एक वस्तु बना कर रख दिया है.
पहले बसंत पंचमी के दिन स्कूलों में सरस्वती की पूजा होती थी. सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे. पर अब न तो वहाँ सरस्वती है और न उसकी कोई पूजा. क्या आपको नही लगता कि स्कूल और कॉलेज अब मन्दिर नही मण्डी बनते जा रहे हैं ? आज कितने बच्चों को यह पता है कि आज के दिन निराला का जन्मदिन भी है. बच्चों की तो छोड़िये,आज कितने युवा शिक्षकों को यह पता है कि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कौन थे ? साहित्य और संस्कृति को अगर इसी तरह से जीवन से ख़त्म किया जाता रहा , तो ज़रा सोच कर देखिये भविष्य में जो युवा पीढी हमें मिलेगी वह कैसी होगी ?और अगर इसी तरह सिर्फ़ पैसा ही जीवन का निर्णायक तत्त्व बनता चला जाए, तब कैसा होगा हमारा भविष्य ? ज़रा सोच कर देखिये.
अंत में हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार निराला को सादर नमन करते हुए उन्ही की दो कवितायें---

(एक)

स्नेह निर्झर बह गया है
रेत सा तन रह गया है.

आग की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है-अब यहाँ पिक या शिखी,
नहीं आते पंक्ति मैं वह हूँ लिखी,
नहीं जिसका अर्थ-
जीवन दह गया है।

दिए हैं जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रभा को चकित चल,
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल,
ठाठ जीवन का वही-
जो ढह गया.

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम त्रिन पर बैठने को निरुपमा,
बह रही है हृदय पर केवल अमा,
मैं अलक्षित हूँ,यही
कवि कह गया है।

(दो)

बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गाँव बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँस कर,
वह कभी नहाती थी धँस कर,
आंखे रह जाती थीं फँस कर,
काँपते थे दोनों पाँव बंधु!

बाँधो नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फ़िर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी सहती थी,
देती थी सबके दाँव बंधु!

बाँधो नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गाँव बंधु!

टिप्पणियाँ

बसंत से पतंग औऱ पतंग से साहित्य तक.... बढ़िया अभिव्यक्ति।
बहुत बढिया पोस्ट लिखी है।बधाई।
shama ने कहा…
Sundar, antarman aur anubhav se likhee rachnaayen...! Yahee padhnaa achha lagtaa hai...mere blogpe, ek khaas maqsadse apnee jeevanee likh rahee hun...wahanbhee swagat hai..
chopal ने कहा…
बहुत बढ़िया! ब्लाग जगत में आपका स्वागत है।
हार्दिक शुभकामनाएं

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