यह सांस्कृतिक सन्नाटा चिंताजनक है--एक
पिछले दिनों मुझे एक नाटक देखने का अवसर मिला। नाटक तो खैर किसी और विषय पर एवं जैसा-तैसा था, पर उसमें एक पात्र था बुद्धिजीवी ! यद्यपि नाटक में उसे हास्य व व्यंग्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए रखा गया था, पर अनायास ही वह पात्र न सिर्फ आज की एक महत्वपूर्ण कड़ु़ई सच्चाई की ओर इशारा करता है, बल्कि जाने-अनजाने उस पर चोट भी करता है।
नाटक का वह पात्र किसी भी घटना के बाद एक चिंतक की भाँति मंच पर आता है और घटना से अपनी पूरी निर्लिप्तता दिखाते हुए अपना परिचय कुछ इस तरह से देता है-''मैं एक बुद्धिजीवी हूँ। मेरा काम है, सोचना और केवल सोचना। इसलिए मैं सोचता हूँ और खूब-खूब सोचता हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचता हूँ। चाय पीने के पहले सोचता हूँ। चाय पीते हुए सिगरेट के धुएं के डूब कर सोचता हूँ। और खूब सोचता हूँ। मैं दिन भर नहाते-खाते-पीते और अपना काम धंधा करते (यानि की अपने और अपने परिवार के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते) हुए सोचता हूँ। रात को खाना खाने से पहले सोचता हूँ। खाना खाने के दौरान सोचता हूँ। बीवी व बच्चों के सवाल-जवाब पर हाँ-हूँ करते हुए सोचता हूँ। सोने से पहले भी मैं काफी देर तक सोचता हूँ। और सोचते-सोचते सो जाता हूँ। क्योंकि मैं एक बुद्धिजीवी हूँ और सोचना मेरा काम है। क्यों, क्या और कैसे से मुझे क्या मतलब ? मैं तो सोचता हूँ और खूब-खूब सोचता हूँ।’’
अगर गौर से देखा जाए तो यह वाकई सच है। आज हमारे बुद्धिजीवी समुदाय की कुल मिलाकर यही स्थिति है। वर्तमान समाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों से पूरी तरह असम्पृक्त, उदासीन, अपने आप मैं ही कैद और संतुष्ट! यह आज के दौर की एक मुख्य प्रवृत्ति है। बल्कि यूँ कहें कि संकट के इस दौर का एक मुख्य कारण भी। क्योंकि आज हमारा पूरा समाज जहां हलचलों और ऊहापोह से भरे एक जटिल दौर से गुजर रहा है, वहीं अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग अपनी सार्थक भूमिका निभाने के बजाय खामोश है।
चाहे वह निठारी में मासूम बच्चों की हत्या का मामला हो, या अपनी माँगो को लेकर जगह-जगह आंदोलन करने वाले किसानों-मजदूरो पर चलायी गयी लाठियों-गोलियों की घटना हो या फिर मुक्त-बाजार की अन्यायपूर्ण नीतियों के चलते आत्महत्या करने को अभिशप्त किसानों का मसला, बुद्धिजीवी जगत को तो शायद इनसे कोई मतलब ही नहीं है । वे तो न जाने खयाली दुनिया के किस नीले और गुलाबी समन्दर में डूबते-उतराते रहते हैं ? बेरोजगारी, महॅगायी, भृष्टाचार, कन्या-भ्रूण हत्या, पुलिस-जुल्म और दहेज हत्या जैसी जन-समस्यायें तो अब इन के लिये पूरी तरह से असरहीन व रोजमर्रा की घटनाये हो गई हैं। ये तो इनकी संवेदना को तो छूती भी नहीं।
नई अर्थव्यवस्था की अंधी नीतियों के चलते पिछले पन्द्रह-बीस सालों में हमारे देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई पहले से काफी चौड़ी हुई है। गरीब और गरीब हुआ है और अमीर और अमीर। आज भी इस देश की अस्सी प्रतिशत आबादी की प्रति माह आमदनी केवल छः सौ रूपया महीना है। देश में करोड़ों लोग भूख और बीमारी से बेहाल हैं। कुछ क्षेत्रों में तो अभी भी लोग गरीबी से तंग आकर या तो अपने बच्चों को बेच देते हैं या फिर भूख से लड़ते हुए तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। किसानों की हालत तो दिन प्रतिदिन बद्तर होती जा रही है। अब तक हजारों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते और उसके असर से हमारे देश में भी बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। छोटे बडे़ न जाने कितने उद्योग धंधे उजड़ कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पेट में चले गये हैं।और उजाड़ गए हैं। रातों-रात अमीर बनने के चक्कर मे मध्यवर्ग के लाखों लोग अपन करोड़ों रुपये शेयरों में डुबा चुके हैं और अब बैंकों के कर्ज तले दब कर छटपटा रहे हैं। महिलाओं पर आज भी मध्ययुगीन अत्याचार हो रहें हैं। घर और बाहर हर जगह उनका शारीरिक व मानसिक शोषण किया जाता है। और अभी भी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक या फिर सिर्फ उपभोग की वस्तु समझा जाता है। वोट की गंदी व स्वार्थी राजनीति ने समाज के पूरे ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अंधराष्ट्रवाद की कोख से पैदा हुए सम्प्रदायिकता, धार्मिक उन्माद, जातियता और क्षेत्रियतावाद के राक्षसों ने इंसानों के बीच की दूरी इतनी बढ़ा दी है कि अब इनको लेकर जगह-जगह हिंसात्मक वारदातें हो रही हैं। देश लगातार आंतकवाद की घटनाओं से लहूलुहान हो रहा है। और आये दिन न जाने कितने मासूम और निर्दोष इसकी क्रूर वेदी पर हलकान हो रहे हैं।
और तो और अभी पिछले नवम्बर में मुंबई में दुनिया की सबसे बड़ी आंतकी घटना हुई है। इससे मुम्बई ही नहीं, समूचा देश दहल गया। लोगों के सब्र का बाँध टूट गया। लाखों लोग बिना किसी खास राजनीतिक समझदारी के ही सिर्फ अपने डर, असुरक्षा और आक्रोश से उबल कर सड़कों पर उतर आये। मोमबत्तियाँ जलायीं व मानव श्रंखला बनाई। और उन्होंने राजनीतिक पार्टियों, राजनेताओं को इसका जिम्मेदार मानते हुए न सिर्फ लानत-मलामत करके उनका बायकाट करना शुरू कर दिया, बल्कि इस समूची राजनीतिक व्यवस्था का निषेध भी करने लगे। परन्तु व्यापक बुद्धिजीवी जगत में इन सबको लेकर न तो कहीं कोई ठोस व संगठित उद्वेलन हुआ। और न ही संस्कृतिकमिर्यों-लेखकों के किसी जन-संगठन या मंच ने आगे बढ़कर इस दिशा में कोई ठोस व कारगर पहल कदमी ली। वाकई यह संन्नाटा काफी खतरनाक और चिंताजनक है।
बाकी अगली बार -----
__अरविन्द कुमार
नाटक का वह पात्र किसी भी घटना के बाद एक चिंतक की भाँति मंच पर आता है और घटना से अपनी पूरी निर्लिप्तता दिखाते हुए अपना परिचय कुछ इस तरह से देता है-''मैं एक बुद्धिजीवी हूँ। मेरा काम है, सोचना और केवल सोचना। इसलिए मैं सोचता हूँ और खूब-खूब सोचता हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचता हूँ। चाय पीने के पहले सोचता हूँ। चाय पीते हुए सिगरेट के धुएं के डूब कर सोचता हूँ। और खूब सोचता हूँ। मैं दिन भर नहाते-खाते-पीते और अपना काम धंधा करते (यानि की अपने और अपने परिवार के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते) हुए सोचता हूँ। रात को खाना खाने से पहले सोचता हूँ। खाना खाने के दौरान सोचता हूँ। बीवी व बच्चों के सवाल-जवाब पर हाँ-हूँ करते हुए सोचता हूँ। सोने से पहले भी मैं काफी देर तक सोचता हूँ। और सोचते-सोचते सो जाता हूँ। क्योंकि मैं एक बुद्धिजीवी हूँ और सोचना मेरा काम है। क्यों, क्या और कैसे से मुझे क्या मतलब ? मैं तो सोचता हूँ और खूब-खूब सोचता हूँ।’’
अगर गौर से देखा जाए तो यह वाकई सच है। आज हमारे बुद्धिजीवी समुदाय की कुल मिलाकर यही स्थिति है। वर्तमान समाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों से पूरी तरह असम्पृक्त, उदासीन, अपने आप मैं ही कैद और संतुष्ट! यह आज के दौर की एक मुख्य प्रवृत्ति है। बल्कि यूँ कहें कि संकट के इस दौर का एक मुख्य कारण भी। क्योंकि आज हमारा पूरा समाज जहां हलचलों और ऊहापोह से भरे एक जटिल दौर से गुजर रहा है, वहीं अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग अपनी सार्थक भूमिका निभाने के बजाय खामोश है।
चाहे वह निठारी में मासूम बच्चों की हत्या का मामला हो, या अपनी माँगो को लेकर जगह-जगह आंदोलन करने वाले किसानों-मजदूरो पर चलायी गयी लाठियों-गोलियों की घटना हो या फिर मुक्त-बाजार की अन्यायपूर्ण नीतियों के चलते आत्महत्या करने को अभिशप्त किसानों का मसला, बुद्धिजीवी जगत को तो शायद इनसे कोई मतलब ही नहीं है । वे तो न जाने खयाली दुनिया के किस नीले और गुलाबी समन्दर में डूबते-उतराते रहते हैं ? बेरोजगारी, महॅगायी, भृष्टाचार, कन्या-भ्रूण हत्या, पुलिस-जुल्म और दहेज हत्या जैसी जन-समस्यायें तो अब इन के लिये पूरी तरह से असरहीन व रोजमर्रा की घटनाये हो गई हैं। ये तो इनकी संवेदना को तो छूती भी नहीं।
नई अर्थव्यवस्था की अंधी नीतियों के चलते पिछले पन्द्रह-बीस सालों में हमारे देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई पहले से काफी चौड़ी हुई है। गरीब और गरीब हुआ है और अमीर और अमीर। आज भी इस देश की अस्सी प्रतिशत आबादी की प्रति माह आमदनी केवल छः सौ रूपया महीना है। देश में करोड़ों लोग भूख और बीमारी से बेहाल हैं। कुछ क्षेत्रों में तो अभी भी लोग गरीबी से तंग आकर या तो अपने बच्चों को बेच देते हैं या फिर भूख से लड़ते हुए तड़प-तड़प कर मर जाते हैं। किसानों की हालत तो दिन प्रतिदिन बद्तर होती जा रही है। अब तक हजारों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते और उसके असर से हमारे देश में भी बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। छोटे बडे़ न जाने कितने उद्योग धंधे उजड़ कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पेट में चले गये हैं।और उजाड़ गए हैं। रातों-रात अमीर बनने के चक्कर मे मध्यवर्ग के लाखों लोग अपन करोड़ों रुपये शेयरों में डुबा चुके हैं और अब बैंकों के कर्ज तले दब कर छटपटा रहे हैं। महिलाओं पर आज भी मध्ययुगीन अत्याचार हो रहें हैं। घर और बाहर हर जगह उनका शारीरिक व मानसिक शोषण किया जाता है। और अभी भी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक या फिर सिर्फ उपभोग की वस्तु समझा जाता है। वोट की गंदी व स्वार्थी राजनीति ने समाज के पूरे ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। अंधराष्ट्रवाद की कोख से पैदा हुए सम्प्रदायिकता, धार्मिक उन्माद, जातियता और क्षेत्रियतावाद के राक्षसों ने इंसानों के बीच की दूरी इतनी बढ़ा दी है कि अब इनको लेकर जगह-जगह हिंसात्मक वारदातें हो रही हैं। देश लगातार आंतकवाद की घटनाओं से लहूलुहान हो रहा है। और आये दिन न जाने कितने मासूम और निर्दोष इसकी क्रूर वेदी पर हलकान हो रहे हैं।
और तो और अभी पिछले नवम्बर में मुंबई में दुनिया की सबसे बड़ी आंतकी घटना हुई है। इससे मुम्बई ही नहीं, समूचा देश दहल गया। लोगों के सब्र का बाँध टूट गया। लाखों लोग बिना किसी खास राजनीतिक समझदारी के ही सिर्फ अपने डर, असुरक्षा और आक्रोश से उबल कर सड़कों पर उतर आये। मोमबत्तियाँ जलायीं व मानव श्रंखला बनाई। और उन्होंने राजनीतिक पार्टियों, राजनेताओं को इसका जिम्मेदार मानते हुए न सिर्फ लानत-मलामत करके उनका बायकाट करना शुरू कर दिया, बल्कि इस समूची राजनीतिक व्यवस्था का निषेध भी करने लगे। परन्तु व्यापक बुद्धिजीवी जगत में इन सबको लेकर न तो कहीं कोई ठोस व संगठित उद्वेलन हुआ। और न ही संस्कृतिकमिर्यों-लेखकों के किसी जन-संगठन या मंच ने आगे बढ़कर इस दिशा में कोई ठोस व कारगर पहल कदमी ली। वाकई यह संन्नाटा काफी खतरनाक और चिंताजनक है।
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__अरविन्द कुमार
टिप्पणियाँ
i understand that, now a days typing in an Indian language is not a big task... recently, i was searching for the user friendly Indian language typing tool and found.. " quillpad". do u use the same..?
Heard that it is much more superior than the Google's indic transliteration...!?
expressing our views in our own mother tongue is a great feeling...and it is our duty too...so, save,protect,popularize and communicate in our own mother tongue...
try this, www.quillpad.in
Jai..Ho...