आख़िर इन विवादों की मंशा क्या है ?---एक

आज कल कई पुराने पिटे पिटाये जिन्नों (मुद्दों) को नए-नए चोले पहना कर फ़िर से बोतल से निकाल दिया गया है. और साहित्य के कुछ नए पुराने पुरोधा फ़िर से अपने अपने तर्क-वितर्क लेकर बहस के अखाड़े में उतर आए हैं. बहस जारी है . और लोग बाग़ इन हम्मामों में नंगे हो रहे हैं. वैसे देखें तो इन बहसों का कोई ख़ास मतलब नही है,पर साहित्य और संस्कृति के सुधि जनों का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे इसमे हस्तक्षेप अवश्य करें. नहीं तो, आने वाले दिनों में जन जीवन और समाज की तरह उन तमाम साहित्यिक मूल्यों और मानदंडों को भी विकृत कर दिया जाएगा,जिन पर न सिर्फ़ हमारा सहित्य,हमारी संस्कृति टिकी हुई है ,बल्कि जिनकी वजह से हमारा समाज भी जीवित व गतिशील है.
आज अभी मैं एक अनजान से समीक्षक रत्न कुमार सांभरिया द्वारा उठाये गए सवाल या उनके द्वारा कथा सम्राट प्रेमचंद पर की गयी गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी पर अपनी बात रखूँगा. वे पूस की रात कहानी की चीड़-फाड़ करते हुए कहने की कोशिश करते हैं कि प्रेमचंद को न तो यथार्थ की समझ थी और न ही उनको किसानों, किसानी, देश और समाज से कोई लगाव. अपनी पूरी विद्वत्ता के ज़रिये उन्होंने प्रेमचंद को नीचा और ख़ुद को महान व समझदार साबित करने का भरपूर प्रयास किया है. शब्द चाहे जैसे भी इस्तेमाल किए गए हों, पर वे कहना यही चाहते है कि प्रेमचंद एक साधारण लेखक थे. उनको खामख्वाह कथा सम्राट के सिंघासन पर बैठा दिया गया है? उनका यह लेख पाखी पत्रिका के दिसम्बर अंक में छपा है। और खूब चर्चा में है.
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि प्रेमचंद पर इस तरह से हमला किया गया हो. विशुद्ध कलावादी ,भाववादी और प्रतिक्रियावादी कई लेखक व समीक्षक पहले भी इस तरह के प्रयास कर चुके हैं. पर अपने आधारहीन तर्कों व अवैज्ञानिक समझ के कारण वे कभी सफल नही हो पाए. होते भी कैसे ? सच के आगे झूठ की बिसात ही क्या होती है ?और सच तो यह है कि प्रेमचंद सिर्फ़ एक लेखक ही नहीं जनता के लेखक थे. उन्होंने न सिर्फ़ कल्पना के आसमान पर उड़ती हुई हिन्दी कहानी को यथार्थ की ज़मीन पर उतारा था, बल्कि उसको प्रगतिशील और जन पक्षीय रंगत भी दी थी।यही नहीं,प्रेमचंद के अन्दर दृष्टि और विचारों की इतनी इमानदारी थी कि वे सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन के लिए चलने वाले जनांदोलनों में लेखकों की सक्रिय भागीदारी के भी थे. और अपने अन्तिम दिनों में स्वयं एक व्यापकआधार वाले साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन बनाना चाहते थे। उनके अन्तिम कुछ लेखों में इसको आसानी से देखा जा सकता है। प्रेमचंद की इन्ही सारी खूबियों के कारण उन्हें कथा सम्राट कहा जाता है. और इन्हीं वज़हों से ही तमाम प्रतिक्रियावादी उनसे चिढ़तें हैं. और जब तब लट्ठ लेकर उन पर पिल पडतें हैं. पर सोचने वाली बात यह है कि आखिर क्या कारण है कि आज इतने सालों के बाद भी प्रेमचंद प्रसांगिक हैं और उनका साहित्य पूरी दुनिया में आदरणीय बना हुआ है ? इस बीच न जाने कितने लेखक आए और समय की गर्त में कहीं गुम हो गए.
दरअसल ,यह प्रतिगामी और प्रगतिशील तथा जनपक्षीय और जनविरोधी विचारों की लड़ाई है. जो लोग कला कला के लिए हो, जनता के लिए बिल्कुल न हो के झंडाबरदार हैं और साहित्य व समाज से सोच समझ व विचारों को जबरन ख़त्म करना चाहते हैं, उनको प्रेमचंद सबसे बड़े दुश्मन नज़र आते हैं. लगता है, इधर जिस तरह से अखबारों, इलेक्ट्रोनिक मीडिया, इतिहास और पाठ्य पुस्तकों में जन विरोधी व प्रतिगामी ताकतों को घुसा कर इनको विकृत करने की कोशिशें हो रही हैं, उसी तरह से रतन कुमार सांभरिया जैसे लोग भी पीछे के रास्ते से साहित्य के गलियारे में चुपके से घुसना चाहते हैं. पर वे भूल जाते हैं कि साहित्यिक का क्षेत्र कोई नौकरी पाने या नामांकित होने की पीठ या संस्था तो है नहीं, जहाँ किसी की कृपा या जुगाड़ से जगह बना लिया जाय. यहाँ तो अन्तिम स्वीकृति तो सुधि पाठकों व जनता को देना होता है. और जनता तो तो उसी को स्वीकार करती है जो उसके दुःख दर्द को समझ कर उसे सही आवाज़ देता है. अभी तो वह फिलहाल प्रेमचंद को ही अपने सिर आंखों पर बिठाये हुए है.
आज इतना ही. शेष फ़िर कभी ----

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