आख़िर इन विवादों की मंशा क्या है?----तीन

यह व्यक्तिगत नहीं विचारों की लड़ाई है
कुछ लोग जन्म से ही अति-स्वछन्द होते हैं। सोच,समझ और विचारों में पूरी तरह से अराजक। ऐसे लोग नहीं चाहते की कभी कोई उनको टोके-टाके। उनके क्रिया-कलापों की आलोचना करे। ऐसे लोग मूलतः यथास्थितिवादी होते हैं।और देश व समाज के विकास में बाधक। वे नही चाहते कि कोई उनको रोके-टोके या उनकी ज़िंदगी और परिवेश को बदलने की कोशिश करे। पर ऐसे लोग अपनी तमाम सारी बौद्धिक संपन्नता के यह नहीं जानते कि प्रतिक्रियावादी जनविरोधी ताकतें हमेशा ऐसे लोगों को न सिर्फ़ पुचकारती सहलाती रहती हैं, बल्कि उनकी निरीह शराफत को आसानी से अपने हितों के लिए इस्तेमाल भी कर लेतीं हैं। वर्गों में बँटे समाज में निरंतर चलनेवाले वर्ग-संघर्सों आप चाह कर भी तटस्थ नहीं रह सकते।आपको यह तय करना ही पड़ता है कि "बंधु आप आखिर किसकी ओर हैं"? वैसे भी व्यक्ति की तटस्थता या चुप्पी अंततः उसको जनता के दुश्मनों के ही पक्ष में ले जा कर खड़ा कर देती है। तमाम कलावादी या भाववादी लोग अपने जाने-अनजाने में समाज की प्रतिगामी ताकतों को ही बल प्रदान करतें हैं। यह एक सच्चाई है।
ऐसे अति-स्वछन्द और तथाकथित तटस्थ लोग सैधांतिक रूप से तो हमेशा साहित्य,कला और सृजन को राजनितिक विचारधारा खास करके जनपक्षीय-जनवादी विचारधारा से मुक्त रखने की वकालत करते हैं, पर वयवहार में निरंतर शासक वर्गीय विचारों व मूल्यों को ही स्थापित करने में लगे रहतें हैं।ये ख़ुद को एलिट और महान समझतें हें, पॉँच सितारा गोष्ठियों-सेमिनारों में रमे रहतें है,सरकारी सम्मानों या पुरस्कारों को पाने के जुगाड़ में रात दिन मरे जाते हें, खेमेबाजी में व्यस्त रहते है और अपनी दरबारी मानसिकता के कारण सिर्फ़ जनता ही नहीं उसके पक्षधर लेखकों,समीक्षकों और लोगों को भी हमेशा तुच्छ, अछूत व मीडिआकर समझ कर साहित्य-संस्कृति, कला और अपनी अति-स्वछन्द व उच्चवर्गीय दुनिया (खेमे) से दूर हाशिये पर ही रखना चाहते हें। सच तो यह है कि ऐसे लोगों को ये साहित्यकार बिल्कुल नहीं मानते,जो व्यापक व संघर्षशील जनता के दुःख दर्द की बातें करते हें और उनकी जद्दो-जहद या उनके संघर्षों के हिमायती होते हें। अब अगर कभी ऐसे एलिट लोगों को खुदा-न खास्ते इसी तरह के किसी व्यक्ति के साथ और वो भी उसके अनुशासन में रह कर काम करना पड़े, तो उन पर क्या-क्या गुज़रेगी ? उनके लिए स्तिथियाँ कितनी असहज और विकट हो जायेंगी ? कितना बंधा-बंधा और पीड़ित महसूस करेंगें ये ? इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है
वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय में विभूति नारायण राय को लेकर मचने वाले हो-हल्ले को इसी रोशनी में देखने और समझने की जरूरत है। हालाँकि भाई लोगों ने इसे एक घटिया व्यक्तिगत लड़ाई की शक्लो-सूरत दे कर माहौल में काफी गंध फैला रखी है, पर वह दरअसल विचारों की लड़ाई है। वहां पर इस समय एक बिगड़ी हुई व्यवस्था को सही ढर्रे पर लाने की कोशिशें की जा रही हें। इसीलिए पुरानी व्यवस्था के तमाम समर्थक असहज हो उठे हें।
कौन नहीं जनता कि विभूति नारायण राय क्या हें ? हिंदी के यशस्वी कथाकार और विचारक। हिंदी की दुनिया उनको बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखती है। क्योंकि सोच,विचार,लेखन और जीवन में ये एक प्रगतीशील और जनपक्षीय व्यक्तित्व हें। दंगों के दौरान पुलिस की सांप्रदायिक भूमिका को बेनकाब करता उनका उपन्यास ''शहर में कर्फ्यू ''को पढ़ कर यह साफ़ हो जाता है कि विभूति नारायण किस कदर मानवीय व न्याय के हिमायती हें। यही नहीं, उन्होने एक समय अयोध्‍या में विश्‍व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल को डंडे भी लगवाये थे। बंगला की मशहूर लेखिका महाश्‍वेता देवी ने भी उनके बारे में अपनी एक सकारात्मक टिप्पणी में लिखा है कि वे एक बेबाक व यथार्थवादी साहित्यकार हें। अब ऐसे व्यक्ति का काम के प्रति समर्पण व सख्त रवैया तमाम अनुशासनहीन व अराजक लोगों को कैसे पसंद आ सकता है ?
आज जो कुछ भी हो-हल्ला वहां हो रहा है, उसके पीछे वे लोग हें जो पुरानी व्यवस्था के कल पुर्जे थे। ये सारे लोग आज विभूतिनारायण, उनके विचारो और उनकी कार्यशैली से यकायक असहज हो उठे हें। उन्हें डर है कि कहीं उनके उपर भी सख्ती का डंडा न बरसने लगे. इसके अलावा उनकी चिंता यह भी है कि अगर कहीं वर्धा के हिन्दी विश्वविद्यालय की व्यवस्था वाकई सुधर गयी, तो न सिर्फ़ इनके हाँथ से सत्ता की सारी मलाई निकल जायेगी, बल्कि पूरे देश में विभूति के नाम का डंका भी बजाने लगेगा। इन बातों से ये इतना परेशान हो उठे है कि तर्कहीन व बे-बुनियाद आरोप लगाने लगे हैं। और मर्यादा की सारी हदों को पार करके व्यक्तिगत आक्षेपों व गाली-गलौज पर उतर आए हैं। पर अंततः ख़ुद ही बेनकाब हो रहे हैं।
आज बस इतना ही। शेष अगली बार।

टिप्पणियाँ

यह कोई नई बात नहीं है अरविन्द जी. अकसर ऐसा ही होता रहा है. फिर भी जनपक्षधर लोग अपने ढंग से चलते रहे हैं और अपना कार्य करते रहे हैं.

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