आखिर इन विवादों की मंशा क्या है?---दो

प्रेमचंद नहीं तो फ़िर कौन ?

रत्न कुमार संम्भारिया द्वारा प्रेमचंद की कहानी पूस की रात की चीड़-फाड़ और उसकी कमियों की तरफ़ इशारा करने का प्रयास सफल हो सकता था,यदि उन्होंने स्वस्थ नज़रिया, भाषा और शैली का इस्तेमाल किया होता.पर अपने निहायत ही अवैज्ञानिक व पूर्वाग्रहों से ग्रस्त समझ और प्रयासों के कारण वे न सिर्फ़ बुरी तरह से असफल हुए हैं, बल्कि बड़ी जल्दी ही अपनी बचकानी और बीमार मानसिकता को उजागर भी कर दिया है. वैसे भी, अक्सर अवैज्ञानिक स्थापनाओं के लिए विज्ञानं और सबूतों का ही सहारा लिया जाता है. यह हम रोज़ देखते हैं. भूत-पिशाचा या आत्मा-परमात्मा को सही साबित करने के लिए विज्ञान या परा-विज्ञान का ही इस्तेमाल किया जाता है. सवाल यह नहीं है कि प्रेमचंद को मौसम की जानकारी थी या नहीं. उनको किसानी आती थी या नहीं. या फ़िर वे गांधीवादी थे या नहीं. वे जेल गए थे कि नहीं. देखने और समझने वाली बात केवल यह है कि वे किसके लेखक थे ? उनहोंने अपनी कथा कहानियो में किसका दुःख दर्द उकेरा था ? और देश या समाज के प्रति उनका नज़रिया क्या था ? वे अपनी रचनाओं में जनता की तरफ़ थे या जनता के दुश्मनों की ओर ?
दरअसल, रत्न कुमार जी को अभी प्रेमचंद और उनके समग्र साहित्य को ठीक से पढ़ने और समझने की जरूरतहै.(यह वैसे भी, किसी भी नए लेखक या समीक्षक को अपनी समझ या दृष्टि को विकसित एवं वैज्ञानिक बनाने केलिए बहुत ज़रूरी है.) तभी तो उनको यह पता चल पायेगा कि आख़िर प्रेमचंद अन्य लेखकों से अलग या श्रेष्ठ क्यों हैं ?और आज भी जब भी हिन्दी की जनपक्षधर-यथार्थवादी कहानियो की बात होती है तो कफ़न, पूस की रात, सवासेर गेहूं और गोदान आदि की ही मिसाल गर्व से क्यों दी जाती है ? अब इन कहानियो में खोज खोज कर गलतियाँ ढूँढना और इनको या फ़िर प्रेमचंद को एक गल़त समझ का कहानीकार बताना ख़ुद समीक्षक की सोच-समझ पर ही सवालिया निशान लगा देता है.

भाई मेरे, प्रेमचंद ने ये कहानियाँ तब लिखी थीं, जब हिन्दी कथा साहित्य में इस तरह की कहानियो का चलन था. कहानी उससे पहले मन-बहलाव की चीज़ हुआ करती थी. उसमे कल्पना , कला और शिल्प तो था, पर उसमें जीवित जनता बिल्कुल नहीं थी. प्रेमचंद ने पहली बार मजदूरों, किसानों, गरीब मध्यवर्गीय लोगों और महिलायों को कहानी में जगह दी. और सिर्फ़ जगह ही नहीं, उन्होंने उनके दुःख-दर्द को इस नज़रिए से प्रस्तुत भी किया कि पाठकों को लगे कि उनकी इन बद्तर स्थितियों के लिए वाकई जिम्मेदार तत्त्व कौन हैं ? और आख़िर इन मजलूमों कि स्थिति बदलेगी कैसे ? दूसरे शब्दों में कहें, तो प्रेमचंद ने ही सबसे पहले अपनी कहानियो में सामंतवाद और पूंजीवाद को व्यापक जनता के दुश्मन के तौर पर चित्रित किया था. और उनके प्रति पाठकों के मन में नफ़रत पैदाकी थी. यह एक बड़ी बात है.
वैसे. रत्न कुमार जी को अपनी विस्फोटक खोज के साथ-साथ लगे हांथों यह भी खुलासा कर देना चाहिए था कि आख़िर उनकी निगाह में प्रेमचंद से बड़ा कौन है ? या प्रेमचंद को उनके स्थान से विस्थापित करके वे उनके समकालीन या उनकी बाद की पीढी में से किसको वहाँ बिठाना चाहते हैं ? परन्तु ऐसा न हो पाने के कारण उनका पूरा प्रयास मात्र एक निषेधात्मक एवं अपमानजनक वक्तव्य बन कर रह गया है.और कुछ नहीं. आशा है, रत्न जीऔर तमाम सुधि पाठक गण मेरी बातों से जरूर सहमत होंगे.
....अपनी अगली टिप्पणी में मै विभूति नारायण राय वाले ज्वलंत विवाद पर अपनी बात रखने का प्रयास करूँगा. कृपया प्रतीक्षा कीजिये.

टिप्पणियाँ

कमी ढूंढने वाले तो कहीं भी कमी ढंढ ही लेते है...अब प्रेमचंद की कहानियों में भी उन्‍हें गलती मिल गयी.....लेकिन आपसे सहमत हूं मैं।

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