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उमस के बावजूद पिछले कई दिनों से यूं ही पानी, धूप और उमस का कठिन और भ ा री क्रम चल रहा था. बाहर तेज ़ बरसात हो रही थी. वे अपने कमरे के कोने में बिछी चारपाई पर लेटे हुए थे. चित. छत को निहारते हुए. चुपचाप. निस्पंद. लगभग मुर्दों की तरह. वह लगातार सिगरेट पी रहा था. और वह उसके धुएं में लिपटी किसी अंधेरे शून्य में तैर रही थी. उन दोनों के भीतर शायद एक भ ा री कोलाहल मचा हुआ था. वहॅां कोई बड़ी उथल-पुथल चल रही थी. वे चुप थे, पर अन्दर ही अन्दर अपनी-अपनी उलझनों को सुलझाने की पुरजोर कोशिश करते हुए अपने आप से जूझ रहे थे. -----सो गए क्या? -----नहीं तो. -----क्या सोच रहे हो? -----कुछ भी तो नहीं. एक लम्बी साँस के साथ उसने ढेर सारा धुआं उगल दिया. सिगरेट की र ा ख को काफी समय से झाड ़ा नहीं गया था. इसलिए उस के अगले सिरे पर राख की एक लम्बी लड़ी बन गयी थी. उसको गिराने के लिए उसने सिगरेट को धीरे से दीवार से छुआया. र ा ख चारपाई पर गिरी. और चादर पर बिखर गयी. इस समय चारपाई को दीवार से स टा कर रखा गया था. पांच सौ अस्सी रुपये महीने के किराये का उनका पूरा कमरा यानि कि मक ा न मालिक का बेकार पड़ा गैराज

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चूहे बच्ची और पत्नी की घटना को वहम मान कर उन्होंने टाल दिया था। पर जब उनके साथ भी लगातार तीसरी बार वही सब कुछ हुआ, तो उनका माथा ठनका। इस बार भी उसी तरह। उसी जैसा। इस बार तो नींद खुलने के बाद भी सब कुछ सही सही जानने के उद्देश्य से उन्होंने अपने हाँथ-पैर को ढीला छोड़ दिया था। खुर-खुर करता हुआ वह उनके पैर के अंगूठे पर जा चढ़ा। उसके बड़े-बड़े पैने नाखूनों की चुभन उन्होंने साफ़-साफ़ महसूस की। दो उँगलियों के बीच की मुलायम जगह पर उसने अपने नथुने से सही स्थान निश्चित किया। और अपने नुकीले दांत गड़ा कर धीरे-धीरे चमड़ी कुतरने लगा। कुतुर-कुतुर...कुतुर-कुतुर। धीरे-धीरे गोश्त तक। गुदगुदी के साथ जब एक तेज़ दर्द उनकी नसों में चढ़ने लगा, तो तिलमिला कर उन्होंने अपना पैर झटक दिया। वह उछला। और यह जा, वह जा। इसके बाद अब उसकी पहचान के लिए उसे खोजना बेकार था। वह चूहा ही था। अब इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं बची थी। तो क्या? वे फिर आ गए? और अब इस रूप में? उनके माथे पर बल पड़ गए। उनकी भृकुटियाँ तन गयीं। और डर की एक सिहरन उनकी नसों में करेंट की तरह दौड़ गयी। इनकी तादात क्या होगी? वे सोचने लगे।   पिता की कृपा पर पलने व

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व्यक्त अव्यक्त              दूर जेल की दीवारों के बीच से अभी-अभी कुछ घंटों की आवाज़ उभरी है । और नीरव वातावरण के परदे पर बारह के अंक आकर टंग गए हैं । रात काफी गहरी हो चुकी है । और उसकी काली चादर के नीचे दुबक कर पूरी की पूरी कायनात बेसुध बेखबर सो रही है । हवा भी । मैं भी सोने की बहुत कोशिश कर रहा हूँ । पर लाख कोशिशों के बावजूद आज की रात मुझे नींद नहीं आ रही । लगातार इधर से उधर करवटें बदल रहा हूँ । दिमाग में एक अंधड़ सा चल रहा है । उस बवंडर से जूझते हुए जब गला सूख कर रेतीला हो जाता है, तो अचकचा कर उठ बैठता हूँ । सिरहाने रखी सुराही से पानी निक ा ल कर पीता हूँ । और फिर से उन्हीं अंधड़ों से जूझने लगता हूँ । गिट्टी बिछी हुयी सड़क पर से शायद अभी-अभी कोई रिक्शा गुज़रा है । खड़-खड़ की आवाज़ से विचारों का सिलसिला बीच में ही टूट गया है । और कांपते हुए होंठों से मैं मोती से चुने तुम्हारे अक्षरों और शीतल-सुवासित तुम्हारे शब्दों को पुनः दुहराने लगता हूँ । दरिया के शांत पानी में मानों कोई कंकड़ गिर गया हो । वृत्ताकार तरंगे धीरे-धीरे फ़ैलने लगती हैं । च ा रों तरफ । और किसी तिनके की तरह इन