कहानी
चूहे
बच्ची और पत्नी की घटना को वहम मान कर
उन्होंने टाल दिया था। पर जब उनके साथ भी लगातार तीसरी बार वही सब कुछ हुआ, तो
उनका माथा ठनका। इस बार भी उसी तरह। उसी जैसा। इस बार तो नींद खुलने के बाद भी सब
कुछ सही सही जानने के उद्देश्य से उन्होंने अपने हाँथ-पैर को ढीला छोड़ दिया था।
खुर-खुर करता हुआ वह उनके पैर के अंगूठे पर जा चढ़ा। उसके बड़े-बड़े पैने नाखूनों की
चुभन उन्होंने साफ़-साफ़ महसूस की। दो उँगलियों के बीच की मुलायम जगह पर उसने अपने
नथुने से सही स्थान निश्चित किया। और अपने नुकीले दांत गड़ा कर धीरे-धीरे चमड़ी
कुतरने लगा। कुतुर-कुतुर...कुतुर-कुतुर। धीरे-धीरे गोश्त तक। गुदगुदी के साथ जब एक
तेज़ दर्द उनकी नसों में चढ़ने लगा, तो तिलमिला कर उन्होंने अपना पैर झटक दिया। वह
उछला। और यह जा, वह जा।
इसके बाद अब उसकी पहचान के लिए उसे खोजना
बेकार था। वह चूहा ही था। अब इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं बची थी। तो क्या? वे
फिर आ गए? और अब इस रूप में? उनके माथे पर बल पड़ गए। उनकी भृकुटियाँ तन गयीं। और
डर की एक सिहरन उनकी नसों में करेंट की तरह दौड़ गयी। इनकी तादात क्या होगी? वे
सोचने लगे। पिता की कृपा पर पलने वाले इन चूहों ने तब से लेकर आज तक इस घर का साथ नहीं छोड़ा। वे शायद इस घर को अपना घर मानते हैं। पिता नियमित रूप से घर के राशन का एक हिस्सा उनके लिए निकाल देते थे। मानों वे घर के ख़ास सदस्य हों। यह उनका एक रूढ़ी ग्रस्त संस्कार था। एक मान्यता। वे कहते थे कि सभी जीव एक ही खुदा के बच्चे हैं। और अगर एक बच्चा कमाता है, तो यह उसका नैतिक कर्त्तव्य होता है कि वह औरों की जीविका भी चलाये। अगर एक सक्षम है, तो वह दूसरे को भी संबल दे। तमाम परेशानियों, उलझनों, उंच-नीचों और खिंचावों के रहते हुए भी पिता ने कभी भी उनके रहने पर कोई आपत्ति नहीं की। और न ही कभी अपना नियम तोड़ा।
पर उन्हें बचपन से ही पिता की इन बातों से काफी चिढ़ थी। वे मन ही मन कुढ़ते थे। ऐसा भी क्या दान-पुण्य? ऐसी भी क्या दया? इतनी महंगाई में इतना कीमती अनाज चूहों को दिया जा रहा है। उनको ऐसे अंधविश्वासों और मान्यताओं पर कत्तई विश्वास नहीं था। दूसरों को खैरात देने से कहीं खुद खाना मिलता है? पिता समझाते कि यह तुम्हारी दया नहीं, उनका हिस्सा, उनका हक़ है। वे अबोलते हैं, तो क्या हुआ? हैं तो जीव ही। पर कैसा हक़? कैसा हिस्सा? एक ही घर में रहने से क्या कोई हक़ कायम हो जाता है? वे सवाल करते। और पिता की सारी बातें एक कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते थे। पिता को वे परले दर्जे का बेवक़ूफ़ समझते थे। और चूहों को गन्दगी और बीमारी का कारण। बचपन की इसी अनिच्छा के कारण जब वे घर की सत्ता में आये, पुराने सारे नियम कायदे टूट गए। और खैरात (हक़) बटनी बंद हो गयी।
खाने की बंदी हो जाने के बाद भी उन्होंने अपना स्थान नहीं बदला। और न ही उनकी तादात में कोई कमी हुयी। थोड़े बहुत असंतोष के बावजूद उनका उछलना, कूदना और स्वच्छंद होकर घूमना पहले की ही तरह चलता रहा। दमन, कैद और छिट-पुट हत्याओं का भी उन पर कोई असर नहीं हुआ। काफी सोचा-विचारी के बाद पत्नी और मित्रों के साथ की एक बैठक में उन्होंने बहुत खुश होकर (मानों मैदान मार लिया हो) फैसला किया और घोषणा की---“गल्ले लोहे के ड्रमों में रखे जायें। लोहे की दीवारों के पीछे। और इस बात का ढोंग किया जाए कि घर में अन्न की भारी कमी हो गयी है।”
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पर अब पता चला कि वे डर कर भागे या गायब नहीं हुए थे। कुछ सोच कर ही वे कुछ दिनों के लिए चुप होकर छुप गए थे। कुछ दिनों की चुप्पी के बाद छिपे हुए चूहे जब बाहर निकले, तो उनके तेवर काफी बदले-बदले और उग्र थे। दिन भर लापता रहने के बाद अब उन्होंने रात के अंधेरे में हमला करना शुरू कर दिया। पहले उनकी छोटी बच्ची पर हमला हुआ। वे उसकी एक उंगली पर दांत गड़ा कर भाग गए। फिर पत्नी ने बताया कि उनको भी नोचा गया है। और आज तीसरी बार लगातार उनकी उँगलियों को भी कुतरने की कोशिश की गयी थी। उन्होंने अनुमान लगाया कि वे एक नहीं थे, बल्कि अनेक थे।
इस बात की किसी को आशा या दुराशा नहीं थी कि चूहे, जो कि शाकाहारी जीव होते हैं और धर्मानुसार जिनको गणेश जी की सवारी मान कर मान-सम्मान दिया जाता है, इस तरह से हिंसक और मांसाहारी हो जायेंगे। कोई मान ही नहीं सकता। उन्हें अपने दोस्तों से इस बात की चर्चा करते हुए भी काफी झिझक और शर्म महसूस हुयी। पर जिक्र करने पर पता चला कि उनके तमाम दोस्त भी आजकल इसी परेशानी से त्रस्त हैं। और उनके पूरे तबके पर इस प्रकार के हमले हो रहे हैं। रात के अंधेरे में वे चुपके से आते हैं। और नर्म चमड़ी या नमकीन गोश्त नोच कर फ़ौरन भाग जाते हैं। सबने बैठ कर एक बहुत बड़ी बैठक की। खूब माथा पच्ची हुयी। और चूहों के इस नए तेवर के खिलाफ बड़े पैमाने पर युद्ध छेड़ दिया गया---समूल नष्ट करो अभियान।
फैसला किया गया कि इस अभियान के प्रथम चरण में पहले उनके निवास स्थान को तोड़ा और नष्ट किया जाएगा। और फिर उनके खिलाफ सैनिक करवाई की जायेगी। फ़ौरन ही उनके बिलों की खुदाई शुरू कर दी गयी। एक दिन नहीं। दो दिन नहीं। यह खुदाई हफ़्तों तक चली। हालाँकि इस खुदाई के शुरूं में कुछ परेशानियाँ ज़रूर आयीं। पर बाहरी लोगों की मदद से उन्हें जल्दी ही सुलझा लिया गया।
पहली और सबसे बड़ी परेशानी थी मजदूरों की। उनका न मिलना। शहर का कोना कोना छान मारा गया। पर कहीं कोई भी मजदूर नहीं मिला। पता चला कि पिछले दिनों शहर की सफाई वाले अभियान में मजदूरों और गरीबों की सारी मलिन बस्तियां तो उन्होंने खुद ही उजड़वा दी थीं। झुग्गियों-झोपड़ियों को हटा कर सड़कों को चौड़ा किया गया था और आलीशान इमारतें बनीं थीं, यह तो उन्हें याद था। पर उन उजड़े हुए लोगों का क्या हुआ? वे कहाँ गए? वे जिंदा भी हैं या मर गए। उन्हें इस बावत कुछ भी नहीं मालूम था। वे अब कहाँ रह रहे हैं? कहाँ जा कर बसे हैं? किस हाल में हैं? इसकी कोई खबर, कोई रिपोर्ट उनके पास उपलब्द्ध नहीं थी। अपनी इस भूल और अदूरदर्शिता का उन्हें काफी अफ़सोस हुआ। झुंझलाहट भी हुयी। पर अब उस बावत कुछ भी नहीं किया जा सकता था। और अब ज्यादा कुछ सोचने का समय भी नहीं था। ठेके पर तुरंत बाहरी मदद ले ली गयी। और फिर, पैसों से क्या कुछ नहीं हो सकता? सब कुछ किया गया। और खुदाई का कार्य सफलता पूर्वक संपन्न हुआ।
खुदाई करने पर पता चला कि वे बिल नहीं एक मोटी सुरंग के अलग-अलग रास्ते थे। वह सुरंग धीरे-धीरे चौड़ी और अंधेरी होती गयी थी। काफी खुदाई के बाद जाकर उसमें प्रकाश नज़र आया। पर आश्चर्य! उसका अंत एक घने जंगल में था, जहां वे चूहे हजारों-लाखों की तादाद में मोर्चेबंदी के साथ डटे हुए थे। इतने चूहों को एक साथ, इस तरह से देख कर वे इतना डर गए कि बदहवासी में उनको सिर पर पैर रख कर वापस भागना पड़ा---बाहर से शीघ्र सैनिक मदद लेने के लिए।
---अरविन्द कुमार
(यह मेरी एक पुरानी और बहु-चर्चित कहानी है और इसे "नोवलोक टाइम्स" ने अभी हाल में ही फिर छापा है)
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