कृष्णा सोबती जी, आपको जन्मदिन मुबारक हो !!
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कृष्णा जी अपनी 'बोल्ड' और 'बिंदास' लेखनी के लिए जानी जाती है। उनके कथ्य और उसको प्रस्तुत करने की उनकी अनोखी शैली उन्हें तमाम साहित्यकारों की भीड़ से अलग करके एक ऊंचा स्थान प्रदान करती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में बड़ी ही कुशलता एवं साफगोई के साथ स्त्री-मन की गहराईयों व उसके व्यक्तित्य के अनछुए पहलुयों को जीवन्तता के साथ उकेरा है। उनका उपन्यास 'मित्रोमार्जनी' में तो बड़ी ही बेबाकी से एक शादी-शुदा महिला की 'सेक्सुअलिटी' का चित्रण किया गया है। १९६६ के साल में आए इस उपन्यास ने न सिर्फ़ हिन्दी साहित्य में एक जबरदस्त भूचाल ला दिया था, बल्कि इसने एक तरह से स्त्री-विमर्श के प्रति पुरूष-वादी सोच व मानसिकता को ध्वस्त भी कर दिया था। वैसे तो, कृष्णा जी कहीं से भी 'महिलावादी' यानि कि 'फेमिनिस्ट नहीं हैं, पर उनका मानना है कि स्त्री-विमर्श के तमाम शोर-शराबे में पुरुषवादी मानसिकता ही हावी रहती है। इस गंभीर मसले पर चहुँ ओर व्याप्त पुरुषवादी यह दृष्टिकोण हमेशा स्त्री-विमर्श को ग़लत दिशा में ले जाता है। ओर तब स्त्री अपनी सम्पूर्णता के बजाय सिर्फ़ एक सेक्स-सिम्बल में बदल कर रह जाती है।
कृष्णा जी न सिर्फ़ अपने लेखन में,बल्कि अपने जीवन में भी बिंदास और साफगों हैं। यह उनकी किताब 'हुम्हास्मत' साफ़-साफ़ देखा जा सकता है, जहाँ उन्होंने अपने समकालीन अन्य साहित्यकारों पर बेवाक ढंग से अपनी लेखनी चलायी है। 'राम मन्दिर विवाद' मसाले पर उनका मानना है कि अयोध्या की विवादस्पद भूमि पर एक ऐसा विश्वविद्यालय बना देना चाहिए, जहाँ हिंदू,मुस्लिम,सिख, बौद्ध व जैन सहित सम्पूर्ण भारतीय धर्म व दर्शन को पढाया जाय।...कृष्णा जी, आप जियें हजारों- हजारों साल इसी तरह बेवाक और सक्रिय।
(चित्र पिकासा वेब एल्बम से साभार)
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