काहे की जय हो ?
आज कल पूरा देश जय हो-जय हो की जय-जय कार में मदमस्त होकर पागलों की तरह झूम रहा है और ऑस्कर मिलने की खुशी में लोग-बाग़ फूल कर इतना कुप्पा हो रहे हैं कि सच की तरफ़ न तो ख़ुद देखना चाहतें हैं और न दूसरों को देखने-सुनने दे रहे हैं। जश्न मनाने का शोर भाई लोगों ने इतना कनफोरवा कर रखा है कि जब तक कोई कुछ सोच-समझ पाए, तब तक स्लमडॉग मिलिनिअर फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक अपना बिजनेस कर के खूब सारा पैसा यहाँ से बटोर लें जायें। और उनका यह कम खूब असं कर रहे हैं उदार पूंजीवाद और वैश्वीकरण की समर्थक इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया। जी हाँ, यह है बाजारवाद का नया रूप जो अबकी ऑस्कर की शक्ल में हमारे यहाँ आया है। चाहे वह स्लमडॉग मिलिनिअर को हांथों-हाथ उठाने का मसला हो या इस्माईल पिंकी को पुरस्कृत करने की बात हो।
इसमें कोई शक नहीं कि ए0 आर0 रहमान एक उच्चकोटि के संगीतकार हैं और गुलजार एक महान गीतकार। उनकी पहचान, प्रतिभा और कला किसी मठ, मंच व कुछ तथाकथित कला-पारखियों की स्वीकृति या प्रमाण-पत्र की मोहताज बिल्कुल नहीं है। उन्होंने दुनिया को अब तक एक से बढकर एक उत्कृष्ट फिल्मी और गैर फिल्मी रचनायें दी हैं। पर उनकी तरफ आज तक किसी पश्चिमी ज्ञानी-विशेषज्ञ का ध्यान क्यों नहीं गया था ? और उनको अब जिस गाने व धुन के लिए सम्मानित किया गया है, क्या वह वाकई उनकी एक सर्वश्रेष्ठ कृति है ? ऐसा तो शायद वे खुद भी नहीं मानते होंगे।
हमें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि उनको दिया गया यह सम्मान और उनकी प्रशंसा में गोरों द्वारा गाए गये ये तमाम गान यूँ ही स्वाभाविक या निस्वार्थ नहीं है। यह ढ़हते हुए विश्व-बाजार की मुनाफा आधारित उस स्वार्थी रणनीति का नतीजा है, जिसके तहत कभी सुस्मिता सेन या ऐशवर्या राय को दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की बनाकर भारत को एक बड़े बाजार और भारतीयों को शक्तिशाली उपभोक्ता समूह में बदलने की चालाक प्रक्रिया शुरू की गयी थी। इन सब से अन्जान हम तब भी गदगद हो कर कुलाँचे भरने लगे थे कि देखो आखिर दुनिया ने भारतीय सौंदर्य का लोहा मान ही लिया। हलाँकि ये दोनों (सुस्मिता और ऐशवर्या) वास्तविक भारतीय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति और बहुत खूबसूरत हैं। पर कई बार बाजार अकूत मुनाफा कमाने की लालसा में कुछ मिडियाकर चेहरों को भी आसमान पर बिठा देता है। जैसा कि बाद के सालों में किया भी गया था। स्लमडॉग मिलिनियर के अति प्रचार-प्रसार के पीछे भी इसी धूर्तता का हाथ है। लेकिन हम यह सोच-सोच कर हवा में कुलांचे मार रहें हैं कि देखो आखिर उनको हमारे यहाँ की प्रतिभावों की सुध आ ही गयी। पर इसबार फर्क सिर्फ इतना है कि ऐशवर्या और सुस्मिता को सिर आँखो पर तब बैठाया गया था जब वैश्वीकरण और उदार पूँजी अपने उठान पर थी। और अब रहमान व गुलजार को हाथों हाथ इसलिए लिया जा रहा है, क्योंकि इस समय विश्व-बाजार बिलकुल मरने की कगार पर है।
अन्य तमाम उद्योगों की तरह हॉलीवुड का फिल्म उद्योग भी मृतप्राय है। और इसको तत्काल ऐसे ही किसी ऑक्सीजन की जरूरत है। जाहिर सी बात है कि रहमान, गुलजार व अनिल कपूर की सक्रिय भागीदारी से और भारत की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म को मिले हुए अवार्ड और आस्कर के लिए हुए नामिनेशन ने इसको इतनी चर्चा तो दिला ही दी है कि लाखों लोग खास करके भारतीय दशर्क फिल्म की तरफ अपने आप खिचें चले आयेंगे। और इसके गीत गानो की सीडी, डीवीडी और कैसेटस पूरी दुनिया में (भारत मे सबसे अधिक) आसानी से बिक जायेगें। इसमें कोई शक नहीं कि सलामडॉग मिलिनियर फिल्म का मुख्य उददेश्य सिर्फ और सिर्फ व्यापार करना है न कि उत्कृष्ट कलात्मक फिल्मों की कड़ी में एक और कृति जोड़ना। इस लिहाज से देखें तो डेनी बायल (निर्देशक) और क्रिश्चियन काल्सन (निर्माता) का मकसद आसानी से पूरा हो रहा है। यह एक कम बजट की कम लागत से बनी फिल्म है, जिसमें कथा लेखक से लेकर कलाकार और लोकेशन तक सब कुछ भारतीय है। और काफी सस्ता भी। दूसरे शब्दों में कहें तो कच्चा माल हमारा, कल-कारखाने व कामगार हमारे और उपभोक्ता भी हम और हमारा देश। क्या अब हालीवुड के फिल्म-उद्योग में इस तरह से आउट सोर्सिंग की शुरूआत नहीं है ? चर्चा तो इस बात की भी खूब हो रही है कि फिल्म के निर्माता और निर्देशक ने स्लम्स में रहने वाले बच्चों से मुफ्त मे काम कराकर उनका भरपूर आर्थिक शोषण किया है। अब अनिल कपूर और इरफान खान को उन के रेट के मुताबिक पारिश्रमिक दिया गया या नहीं, पर इस फिल्म में काम कर के वे अपने आपको काफी धन्य महसूस कर रहे है। और यही उनके लिए बहुत है।
भाई लोगों को खुशी इस बात की भी बहुत ज्यादे है कि भारतीयों को विदेश का कोई बड़ा पुरस्कार मिला है। और यह बड़े गर्व की बात है। यह हमारी मानसिकता को दर्शाता है। दरअसल हम आजाद तो हो गये है और हमारी आजादी ने साठ साल का लम्बा सफर भी पूरा कर लिया है, परन्तु हमारी मानसिकता अभी भी पूरी तरह से गुलाम बनी हुई है। इसी कारण हम मौका मिलते ही अंग्रेजी और अंग्रेजो के आगे न सिर्फ नतमस्तक हो जाते हैं, बल्कि इसमें अपनी शान भी समझते हैं। जब तक हमें कोई विदेशी स्वीकृति, पुरस्कार या सम्मान नहीं मिलता, हमें अपना जीवन या तमाम रचनात्मक उपलब्धियाँ अधूरी लगती हैं। और जब यह हमें मिलता है, तो हम अपने आप को रायबहादुर या जागीरदार जैसे खिताबों से पुनः नवाजा हुआ मानकर गर्व से सीना चौडा करने लगते, जैसा कि इस समय कर रहें हैं।
यह कोई जरूरी नहीं है कि किसी गोरी चमड़ी द्वारा बनायी गयी फिल्म या रचा हुआ साहित्य शानदार और अद्वितीय ही हो। हम जानतें हैं कि विदेशों में भी हर साल सैकड़ों कूडा फिल्में बनती हैं या बकवास साहित्य रचा जाता है। और अगर हॉलीवुड की फिल्मों के तकनीकी पक्ष को छोड़ दिया जाये, तो उनके फिल्मी लेखकों, निर्देशकों व कलाकारों की तुलना में हमारे यहाँ के कलाकार कहीं अधिक प्रतिभाशाली होते हैं। बल्कि हमारे यहाँ की सोच, समझ और दृष्टि का स्तर इन विदेशियों से अधिक ऊँचा और मानवीय होता है। खासकर के इस देश की मिट्टी के दुख-दर्द को समझने और रचनाओं में उकेरने के संदर्भ में हमारी संवेदना अधिक सहज और तीव्र होती है। यदि इसी स्लमडॉग मिलिनियर फिल्म को किसी कुशल भारतीय निर्माता-निर्देशक ने बनाया होता, तो वह अधिक जीवंत व प्रभावशाली होती। पर क्या तब भी इस को इतनी ही तवज्जो दी जाती ? और तब भी क्या इसके लिए ऑस्कर में इतना ही धूम-धडाका किया जाता ?
अंत में मैं यह कहना चाहता हूँ कि इस्माईलपिंकी को मिले ऑस्कर को भी इसी लिहाज से देखने और समझाने की जरूरत है। यह दोकुमेंट्री तो सीधे-सीधे स्माईल ट्रेन का प्रचार कर ने वाली फ़िल्म है। यह स्वयं सेवी संस्था भारत सहित कई विकासशील देशों में कटे-फटे होंठों-तालू का ऑपरेशन करवाती है। और अच्छे-अच्छे प्लास्टिक सर्जन्स का अपने तरीके से इस्तेमाल करती है। इस के कारण कई प्लास्टिक सर्जन तो अपनी सरकारी नौकरी को छोड़ कर इस्माईल ट्रेन पर सवार हो रहें हैं, क्योंकि यहाँ से उनको खूब सारा नाम और पैसा मिल रहा है। यह चिकित्सा के क्षेत्र का घातक बाजारवाद है।
अच्छा एक बात बताइए, हमें सम्मान मिल गया, पुरस्कार झटक लिया, प्रचार हो गया, हम गदगद हो लिए और हमारा जीवन धन्य हो गया, पर क्या इससे असल जिन्दगी के ज़मालों या की पिंकियों जिन्दगी बदल पायेगी ? ये स्लम्स और कटे-फटे तालू-होंठ जिन सामाजिक व आर्थिक कारणों से होतें हैं वे परिस्थितयां क्या बदल जायेंगी ?
(तस्वीर गूगल इमेज सर्च से साभार)
इसमें कोई शक नहीं कि ए0 आर0 रहमान एक उच्चकोटि के संगीतकार हैं और गुलजार एक महान गीतकार। उनकी पहचान, प्रतिभा और कला किसी मठ, मंच व कुछ तथाकथित कला-पारखियों की स्वीकृति या प्रमाण-पत्र की मोहताज बिल्कुल नहीं है। उन्होंने दुनिया को अब तक एक से बढकर एक उत्कृष्ट फिल्मी और गैर फिल्मी रचनायें दी हैं। पर उनकी तरफ आज तक किसी पश्चिमी ज्ञानी-विशेषज्ञ का ध्यान क्यों नहीं गया था ? और उनको अब जिस गाने व धुन के लिए सम्मानित किया गया है, क्या वह वाकई उनकी एक सर्वश्रेष्ठ कृति है ? ऐसा तो शायद वे खुद भी नहीं मानते होंगे।
हमें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि उनको दिया गया यह सम्मान और उनकी प्रशंसा में गोरों द्वारा गाए गये ये तमाम गान यूँ ही स्वाभाविक या निस्वार्थ नहीं है। यह ढ़हते हुए विश्व-बाजार की मुनाफा आधारित उस स्वार्थी रणनीति का नतीजा है, जिसके तहत कभी सुस्मिता सेन या ऐशवर्या राय को दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की बनाकर भारत को एक बड़े बाजार और भारतीयों को शक्तिशाली उपभोक्ता समूह में बदलने की चालाक प्रक्रिया शुरू की गयी थी। इन सब से अन्जान हम तब भी गदगद हो कर कुलाँचे भरने लगे थे कि देखो आखिर दुनिया ने भारतीय सौंदर्य का लोहा मान ही लिया। हलाँकि ये दोनों (सुस्मिता और ऐशवर्या) वास्तविक भारतीय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति और बहुत खूबसूरत हैं। पर कई बार बाजार अकूत मुनाफा कमाने की लालसा में कुछ मिडियाकर चेहरों को भी आसमान पर बिठा देता है। जैसा कि बाद के सालों में किया भी गया था। स्लमडॉग मिलिनियर के अति प्रचार-प्रसार के पीछे भी इसी धूर्तता का हाथ है। लेकिन हम यह सोच-सोच कर हवा में कुलांचे मार रहें हैं कि देखो आखिर उनको हमारे यहाँ की प्रतिभावों की सुध आ ही गयी। पर इसबार फर्क सिर्फ इतना है कि ऐशवर्या और सुस्मिता को सिर आँखो पर तब बैठाया गया था जब वैश्वीकरण और उदार पूँजी अपने उठान पर थी। और अब रहमान व गुलजार को हाथों हाथ इसलिए लिया जा रहा है, क्योंकि इस समय विश्व-बाजार बिलकुल मरने की कगार पर है।
अन्य तमाम उद्योगों की तरह हॉलीवुड का फिल्म उद्योग भी मृतप्राय है। और इसको तत्काल ऐसे ही किसी ऑक्सीजन की जरूरत है। जाहिर सी बात है कि रहमान, गुलजार व अनिल कपूर की सक्रिय भागीदारी से और भारत की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म को मिले हुए अवार्ड और आस्कर के लिए हुए नामिनेशन ने इसको इतनी चर्चा तो दिला ही दी है कि लाखों लोग खास करके भारतीय दशर्क फिल्म की तरफ अपने आप खिचें चले आयेंगे। और इसके गीत गानो की सीडी, डीवीडी और कैसेटस पूरी दुनिया में (भारत मे सबसे अधिक) आसानी से बिक जायेगें। इसमें कोई शक नहीं कि सलामडॉग मिलिनियर फिल्म का मुख्य उददेश्य सिर्फ और सिर्फ व्यापार करना है न कि उत्कृष्ट कलात्मक फिल्मों की कड़ी में एक और कृति जोड़ना। इस लिहाज से देखें तो डेनी बायल (निर्देशक) और क्रिश्चियन काल्सन (निर्माता) का मकसद आसानी से पूरा हो रहा है। यह एक कम बजट की कम लागत से बनी फिल्म है, जिसमें कथा लेखक से लेकर कलाकार और लोकेशन तक सब कुछ भारतीय है। और काफी सस्ता भी। दूसरे शब्दों में कहें तो कच्चा माल हमारा, कल-कारखाने व कामगार हमारे और उपभोक्ता भी हम और हमारा देश। क्या अब हालीवुड के फिल्म-उद्योग में इस तरह से आउट सोर्सिंग की शुरूआत नहीं है ? चर्चा तो इस बात की भी खूब हो रही है कि फिल्म के निर्माता और निर्देशक ने स्लम्स में रहने वाले बच्चों से मुफ्त मे काम कराकर उनका भरपूर आर्थिक शोषण किया है। अब अनिल कपूर और इरफान खान को उन के रेट के मुताबिक पारिश्रमिक दिया गया या नहीं, पर इस फिल्म में काम कर के वे अपने आपको काफी धन्य महसूस कर रहे है। और यही उनके लिए बहुत है।
भाई लोगों को खुशी इस बात की भी बहुत ज्यादे है कि भारतीयों को विदेश का कोई बड़ा पुरस्कार मिला है। और यह बड़े गर्व की बात है। यह हमारी मानसिकता को दर्शाता है। दरअसल हम आजाद तो हो गये है और हमारी आजादी ने साठ साल का लम्बा सफर भी पूरा कर लिया है, परन्तु हमारी मानसिकता अभी भी पूरी तरह से गुलाम बनी हुई है। इसी कारण हम मौका मिलते ही अंग्रेजी और अंग्रेजो के आगे न सिर्फ नतमस्तक हो जाते हैं, बल्कि इसमें अपनी शान भी समझते हैं। जब तक हमें कोई विदेशी स्वीकृति, पुरस्कार या सम्मान नहीं मिलता, हमें अपना जीवन या तमाम रचनात्मक उपलब्धियाँ अधूरी लगती हैं। और जब यह हमें मिलता है, तो हम अपने आप को रायबहादुर या जागीरदार जैसे खिताबों से पुनः नवाजा हुआ मानकर गर्व से सीना चौडा करने लगते, जैसा कि इस समय कर रहें हैं।
यह कोई जरूरी नहीं है कि किसी गोरी चमड़ी द्वारा बनायी गयी फिल्म या रचा हुआ साहित्य शानदार और अद्वितीय ही हो। हम जानतें हैं कि विदेशों में भी हर साल सैकड़ों कूडा फिल्में बनती हैं या बकवास साहित्य रचा जाता है। और अगर हॉलीवुड की फिल्मों के तकनीकी पक्ष को छोड़ दिया जाये, तो उनके फिल्मी लेखकों, निर्देशकों व कलाकारों की तुलना में हमारे यहाँ के कलाकार कहीं अधिक प्रतिभाशाली होते हैं। बल्कि हमारे यहाँ की सोच, समझ और दृष्टि का स्तर इन विदेशियों से अधिक ऊँचा और मानवीय होता है। खासकर के इस देश की मिट्टी के दुख-दर्द को समझने और रचनाओं में उकेरने के संदर्भ में हमारी संवेदना अधिक सहज और तीव्र होती है। यदि इसी स्लमडॉग मिलिनियर फिल्म को किसी कुशल भारतीय निर्माता-निर्देशक ने बनाया होता, तो वह अधिक जीवंत व प्रभावशाली होती। पर क्या तब भी इस को इतनी ही तवज्जो दी जाती ? और तब भी क्या इसके लिए ऑस्कर में इतना ही धूम-धडाका किया जाता ?
अंत में मैं यह कहना चाहता हूँ कि इस्माईलपिंकी को मिले ऑस्कर को भी इसी लिहाज से देखने और समझाने की जरूरत है। यह दोकुमेंट्री तो सीधे-सीधे स्माईल ट्रेन का प्रचार कर ने वाली फ़िल्म है। यह स्वयं सेवी संस्था भारत सहित कई विकासशील देशों में कटे-फटे होंठों-तालू का ऑपरेशन करवाती है। और अच्छे-अच्छे प्लास्टिक सर्जन्स का अपने तरीके से इस्तेमाल करती है। इस के कारण कई प्लास्टिक सर्जन तो अपनी सरकारी नौकरी को छोड़ कर इस्माईल ट्रेन पर सवार हो रहें हैं, क्योंकि यहाँ से उनको खूब सारा नाम और पैसा मिल रहा है। यह चिकित्सा के क्षेत्र का घातक बाजारवाद है।
अच्छा एक बात बताइए, हमें सम्मान मिल गया, पुरस्कार झटक लिया, प्रचार हो गया, हम गदगद हो लिए और हमारा जीवन धन्य हो गया, पर क्या इससे असल जिन्दगी के ज़मालों या की पिंकियों जिन्दगी बदल पायेगी ? ये स्लम्स और कटे-फटे तालू-होंठ जिन सामाजिक व आर्थिक कारणों से होतें हैं वे परिस्थितयां क्या बदल जायेंगी ?
(तस्वीर गूगल इमेज सर्च से साभार)
टिप्पणियाँ