"आनर किलिंग के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने की ज़रुरत"


जब भी कभी कोई देश और समाज आयातित, विदेशी औरअंधाधुंध मुनाफा आधारित बाजारू संस्कृति के लबादे को ओढ़कर अपने आप को विकसित प्रदर्शित करने का दिखावा करता है,तो प्रतिक्रिया में कई जंगली रूढ़ियाँ और पिछड़ी बर्बर प्रवृत्तियां अजगर की तरह अपना फन फ़ैलाने लगती हैं. और तभी यह आनर किलिंग या खाप जैसी पंचायतों के जरिये प्रेमी जोड़ों की निर्मम हत्याएं एक चलन के तौर पर पूरे समाज को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए उतावली हो उठती हैं. और तब अच्छे भले लोग और बुद्धिजीवी भी इन हत्याओं के पीछे मात्र सगोत्र विवाह जैसे कुछ तथाकथित कारणों को खोज कर या मान कर आनर किलिंग के खिलाफ की पूरी बहस को एकदम उल्टी दिशा में ले कर चले जातें हैं...इसी कारण तब समाज में वे सारे दकियानूसी विचार और वे सारी पिछड़ी मान्यताएं पुनर्जीवित होने लगती हैं, जिनको मनुष्य और समाज की चेतना ने कभी पीट-पीट कर गहरे गड्ढे में दफ़न कर दिया था. आज आनर किलिंग के नाम पर जाति-आधारित पंचायतों की बर्बर, अमानवीय और हत्यारी हरकतें, महिलाओं खास करके दलित महिलाओं पर होने वाले शारीरिक अत्याचार, कन्या भ्रूण की गर्भ में ही हत्याएं, शिशु बलि और बाल-यौन शोषण की दिनोदिन बढ़ती घटनाएँ इसी बात का सबूत हैं...इसीलिये अगर हमारे समाज को आगे बढना है तो इन प्रवृतियों और मान्यतों पर हर हाल में अंकुश लगाना ही होगा.एक अति कठोर और उदाहरणीय अंकुश..(इसी सन्दर्भ में भड़ास ब्लॉग पर भाई ओ.पी.पाल के विचार सही और विचारणीय लगते हैं.अवश्य देखें.)
पर क्या यह सब सिर्फ कानून बनाने से रूक जायेगा ?...शायद नहीं. क्योंकि इस तरह के कई अन्य कानूनों की व्यावहारिकता को हम पहले भी खूब देख परख चुके हैं....इसके लिए तो एक व्यापक आधार वाले सांस्कृतिक एवं वैचारिक अभियान चलाने की सख्त जरूरत है--बुद्धिजीवियों और सचेत प्रबुद्ध नागरिकों का मिलाजुला एक कारगर सांस्कृतिक आन्दोलन...आज देश,समाज और समय यही मांग रहा है!..पर क्या सांस्कृतिक कर्मी, बुद्धिजीवी और प्रबुद्ध नागरिक गण इसके लिए तैयार हैं? यह एक बड़ा सवाल है!

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