कई बार सोचता हूँ...
कई बार सोचता हूँ कि अपने बारे में विस्तार से लिखूं। अपनी ज़िंदगी के बारे में। अपने अनुभवों के बारे में। अपने प्यार, अपनी चाहत, अपनी नफ़रत, अपने संघर्षों, अपनी उपलब्धियों, अपनी नाकामयाबियों और अपनी अब तक की सम्पूर्ण जीवन यात्रा के बारे में।...अपने बार बार मरने और फिर-फिर से जी उठने के बारे में लिखूं।
मैं चाहता हूँ कि अपने परिवार, अपने दोस्तों और अपने दुश्मनों के बारे में लिखूं।...आज कल मै जो कुछ भी हूँ, जैसा भी हूँ और जिन्दगी के जिस भी मुकाम पर हूँ, उसमें दोस्तों का जितना हाथ है, उससे कहीं ज्यादे उन छुपे हुए दुश्मनों और उन फरेबियों का भी हाथ है, जिन्होनें न सिर्फ बार-बार मेरे पीठ में छुरा घोंपा है बल्कि मेरी राह में कदम कदम पर बारूदी सुरंगें भी बिछाई हैं। अपनों ने अपने प्यार से जहाँ मुझे लड़ने, जूझने और अपनी राह पर दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ने की ताकत दी है, वहीं मुझसे जलने-चिढ़ने वालों ने मुझे जिद्दी, पलट कर बदला लेने वाला और कभी भी हार न मानने वाला बना दिया है। ...आज मैं उन सबको इसके लिए अपना हार्दिक आभार प्रगट करना चाहता हूँ।....उनको फूलों का भरा पूरा गुलदस्ता देना चाहता हूँ।
मै बचपन से लेकर बीते हुए कल तक की उन तमाम यादों के बारे में, जो आज भी यदा कदा उभर कर मुझको अपने आगोश में ले लेती हैं।...खट्टी मीठी कडुई यादें। रेगिस्तान की तपती झुलसाती धूप सी यादें...नागफनी की कंटीली झाड़ो की तरह की यादें...सावन की फुहारों की तरह मादक और उत्तेजक यादें... पहाड़ की चोटियों पर गिरने वाली बर्फ की तरह ठंडी और खून कों जामा देने वाली यादें...यादें, जिन्होंने मुझे तोडा है, जोड़ा है, और मेरे आज का निर्माण किया है। यादें, जिन्होंने मुझे जीना सिखाया है और मेरे अन्दर विचारों के बीज बोये हैं। जिन्दगी को देखने का मुझे एक अलग नजरिया दिया है।....
मैं अपनी जिंदगी में आये प्यार के पलों और उन खूबसूरत महिलाओं के बारे में भी लिखना चाहता हूँ, जिन्होनें मुझे प्यार करना सिखाया है, जीवन में प्यार की ताकत और उसकी जरुरत से रूबरू कराया है। मैं अपने दिलो-दिमाग पर पड़े उन तमाम खरोंचों को भी कलमबद्ध करना चाहता हूँ, जिन्होंने मुझे समय समय पर गहरे अवसाद की गहराइयों में धकेला है। मैं उन तमाम रिश्तों की गांठे भी खोलना चाहता हूं, जिन्होंने मुझे बार बार चौंकाया या झटके ही नहीं दिए, खुद कों और उन रिश्तों कों फिर से परिभाषित करने के लिए मज़बूर भी किया है।...
मैं सेक्स के बारे में, इसकी नैसर्गिकता, इसकी ऊर्जा और इसके भटकावों के बारे में भी लिखना और अपने अनुभव बांटना चाहता हूँ। ....
मुझे लगता है कि मैं मूलतः एक रचनाकार हूँ। और सिर्फ लिखने के लिए ही पैदा हुआ हूँ। यह प्रोफेसरी और यह पद प्रतिष्ठा तो बस एक बोझ है जिसे मै बैल की तरह बस ढोये जा रहा हूँ। ....मैंने अम्मा से एक बार कहा भी था और आज भी मैं यही चाहता हूँ कि अगर मुझे मेरी दैनिक जरूरत भर के लिए पैसे मिल जाएँ, तो मै नौकरी वौकरी छोड़ कर लिखने और सिर्फ लिखने के लिए बैठ जाऊं।....अधिक पैसा या धन दौलत ने मुझे कभी भी आकर्षित नहीं किया। इसीलिये मैंने कभी भी उसके लिए कोई सायास कोशिश नहीं की। बस जरूररत भर के लिए मिल जाये बस! और ज़रूरतें भी मेरी बहुत सीमित हैं।... पर यही एक ऐसा मुद्दा है जो मुझे अक्सर तोड़ कर रख देता है। कई बार तो रोज-ब-रोज। मैं अपनी जरूरतों कों सीमित करके आराम से तो जी सकता हूँ, पर बच्चों या पत्नी कों सीधा-सादा जीवन बिताने के लिए कहना या दबाव डालना मुझे अक्सर से तोड़ कर रख देता है।... इस तरह से अपनी और अपने परिवार की जरूरतों के लिए की जाने वाली नौकरी और उसके अति यांत्रिक ताने-बाने ने मुझे ही नहीं, मेरे लेखन कों भी पूरी तरह से अस्त-व्यस्त कर के रख दिया है।...वरना आज मै भी देश के कुछ गिने-चुने लेखकों में शुमार होता। मैं अपनी इस आतंरिक कसक पर भी विस्तार से लिखना चाहता हूँ।
मैं सिर्फ अपने बारे में लिखना ही नहीं, अपने आप कों पूरी तरह से खोलना, हल्का करना और फिर से सहेजना चाहता हूँ, ताकि मै जी सकूं सुकून से...दिलो-दिमाग पर बिना किसी बोझ को ढोते हुए।
मैं चाहता हूँ कि अपने परिवार, अपने दोस्तों और अपने दुश्मनों के बारे में लिखूं।...आज कल मै जो कुछ भी हूँ, जैसा भी हूँ और जिन्दगी के जिस भी मुकाम पर हूँ, उसमें दोस्तों का जितना हाथ है, उससे कहीं ज्यादे उन छुपे हुए दुश्मनों और उन फरेबियों का भी हाथ है, जिन्होनें न सिर्फ बार-बार मेरे पीठ में छुरा घोंपा है बल्कि मेरी राह में कदम कदम पर बारूदी सुरंगें भी बिछाई हैं। अपनों ने अपने प्यार से जहाँ मुझे लड़ने, जूझने और अपनी राह पर दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ने की ताकत दी है, वहीं मुझसे जलने-चिढ़ने वालों ने मुझे जिद्दी, पलट कर बदला लेने वाला और कभी भी हार न मानने वाला बना दिया है। ...आज मैं उन सबको इसके लिए अपना हार्दिक आभार प्रगट करना चाहता हूँ।....उनको फूलों का भरा पूरा गुलदस्ता देना चाहता हूँ।
मै बचपन से लेकर बीते हुए कल तक की उन तमाम यादों के बारे में, जो आज भी यदा कदा उभर कर मुझको अपने आगोश में ले लेती हैं।...खट्टी मीठी कडुई यादें। रेगिस्तान की तपती झुलसाती धूप सी यादें...नागफनी की कंटीली झाड़ो की तरह की यादें...सावन की फुहारों की तरह मादक और उत्तेजक यादें... पहाड़ की चोटियों पर गिरने वाली बर्फ की तरह ठंडी और खून कों जामा देने वाली यादें...यादें, जिन्होंने मुझे तोडा है, जोड़ा है, और मेरे आज का निर्माण किया है। यादें, जिन्होंने मुझे जीना सिखाया है और मेरे अन्दर विचारों के बीज बोये हैं। जिन्दगी को देखने का मुझे एक अलग नजरिया दिया है।....
मैं अपनी जिंदगी में आये प्यार के पलों और उन खूबसूरत महिलाओं के बारे में भी लिखना चाहता हूँ, जिन्होनें मुझे प्यार करना सिखाया है, जीवन में प्यार की ताकत और उसकी जरुरत से रूबरू कराया है। मैं अपने दिलो-दिमाग पर पड़े उन तमाम खरोंचों को भी कलमबद्ध करना चाहता हूँ, जिन्होंने मुझे समय समय पर गहरे अवसाद की गहराइयों में धकेला है। मैं उन तमाम रिश्तों की गांठे भी खोलना चाहता हूं, जिन्होंने मुझे बार बार चौंकाया या झटके ही नहीं दिए, खुद कों और उन रिश्तों कों फिर से परिभाषित करने के लिए मज़बूर भी किया है।...
मैं सेक्स के बारे में, इसकी नैसर्गिकता, इसकी ऊर्जा और इसके भटकावों के बारे में भी लिखना और अपने अनुभव बांटना चाहता हूँ। ....
मुझे लगता है कि मैं मूलतः एक रचनाकार हूँ। और सिर्फ लिखने के लिए ही पैदा हुआ हूँ। यह प्रोफेसरी और यह पद प्रतिष्ठा तो बस एक बोझ है जिसे मै बैल की तरह बस ढोये जा रहा हूँ। ....मैंने अम्मा से एक बार कहा भी था और आज भी मैं यही चाहता हूँ कि अगर मुझे मेरी दैनिक जरूरत भर के लिए पैसे मिल जाएँ, तो मै नौकरी वौकरी छोड़ कर लिखने और सिर्फ लिखने के लिए बैठ जाऊं।....अधिक पैसा या धन दौलत ने मुझे कभी भी आकर्षित नहीं किया। इसीलिये मैंने कभी भी उसके लिए कोई सायास कोशिश नहीं की। बस जरूररत भर के लिए मिल जाये बस! और ज़रूरतें भी मेरी बहुत सीमित हैं।... पर यही एक ऐसा मुद्दा है जो मुझे अक्सर तोड़ कर रख देता है। कई बार तो रोज-ब-रोज। मैं अपनी जरूरतों कों सीमित करके आराम से तो जी सकता हूँ, पर बच्चों या पत्नी कों सीधा-सादा जीवन बिताने के लिए कहना या दबाव डालना मुझे अक्सर से तोड़ कर रख देता है।... इस तरह से अपनी और अपने परिवार की जरूरतों के लिए की जाने वाली नौकरी और उसके अति यांत्रिक ताने-बाने ने मुझे ही नहीं, मेरे लेखन कों भी पूरी तरह से अस्त-व्यस्त कर के रख दिया है।...वरना आज मै भी देश के कुछ गिने-चुने लेखकों में शुमार होता। मैं अपनी इस आतंरिक कसक पर भी विस्तार से लिखना चाहता हूँ।
मैं सिर्फ अपने बारे में लिखना ही नहीं, अपने आप कों पूरी तरह से खोलना, हल्का करना और फिर से सहेजना चाहता हूँ, ताकि मै जी सकूं सुकून से...दिलो-दिमाग पर बिना किसी बोझ को ढोते हुए।
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