क्या मुसलमान सिर्फ वोट बैंक हैं?
सच्चर समिति की
रिपोर्ट के अनुसार आज बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय की सामाजिक और आर्थिक स्थिति इस
देश के अनुसूचित जन जातियों से भी अधिक दयनीय है. गरीबी और भविष्य में कोई ढंग की नौकरी
न मिल पाने के अंदेशे से अधिकांश मुसलमान अपने बच्चों को मुकम्मिल शिक्षा नहीं दिलवा
रहे. वे या तो किसी मैकेनिक के यहाँ लग कर तकनीकि काम सीखने लगते हैं या फिर
होटलों-ढाबों में लग कर मजदूरी करते हैं. इसी लिये उनको मुख्य धारा में शामिल करने
के लिए कई तरफ से आरक्षण की मांग उठने लगी है. लेकिन सरकारी उदासीनता का आलम यह है
कि सच्चर कमेटी की सिफारिशें आज भी फाईलों से बाहर निकलने की बाट जोह रही हैं.
प्रधान मंत्री ने संसद में यह बयान दिया था कि भारतीय
लोकतंत्र के ढांचे के भीतर सरकारी संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है.
परन्तु उनके बयान को अमली जामा पहनाने के लिए न तो नौकरशाही ने कोई रूचि दिखाई है और
न ही सत्ताधीश नेताओं ने. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एन एस एस ओ) के अनुसार भारत
के मुसलमान औसतन बत्तीस रुपये छियासठ पैसे प्रति दिन पर गुज़ारा करते हैं. जबकि सिख
समुदाय पचपन रुपये तीस पैसे और ईसाई इक्यावन रुपये तेतालीस पैसे प्रतिदिन खर्च
करता है. इसके अतिरिक्त सरकारी योजनाओं का लाभ भी मुस्लिम समुदाय को मुकम्मिल तौर
पर नहीं मिल पा रहा है. मनरेगा में उनकी भागेदारी लगभग नगण्य है. उन्हें जॉब कार्ड
जारी करने में नज़रंदाज़ किया जाता है. यही नहीं उनको ‘मास आंगनवाड़ी प्रोग्राम’, ‘प्राइमरी
और एलिमेंटरी शिक्षा कार्यक्रम’ और ‘मास माइक्रो क्रेडिट’ प्रोग्राम में शामिल
नहीं किया गया है. प्रमुख बैंकरों की कमेटी की हाल ही में आयी एक रिपोर्ट के
अनुसार सरकार की उदासीनता के कारण आजकल बैंक भी अल्पसंख्यकों को आसानी से क़र्ज़
नहीं देते हैं. और इस मामले में गुजरात की हालत तो और भी ख़राब है. इस रिपोर्ट के
अनुसार देश के 121 अल्पसंख्यक बहुल जिलों
में सिर्फ 26 प्रतिशत खाते अल्पसंख्यकों के हैं, जबकि क़र्ज़ का
आंकड़ा सिर्फ 12 फीसदी है. और इनमें भी मुसलमानों को मिलने
वाला क़र्ज़ न के बराबर है.
कुल मिला कर आज का भारतीय मुस्लमान न सिर्फ सामाजिक,
शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है, बल्कि हर तरफ से मायूस भी है. और खास करके
राजनीतिक पार्टियों से. चाहे वह खालिस धर्म निरपेक्षता का दावा करने वाली कांग्रेस
पार्टी हो या सामाजिक न्याय का बिगुल बजाने वाली बसपा. चाहे वह समाजवादी पार्टी हो
या फिर वामपंथी. संघ पोषित भाजपा को तो वैसे भी मुस्लिम विरोधी कह कर बहु प्रचारित
किया जाता है. ये सभी पार्टियाँ मौका पड़ने (और खास करके चुनावों के समय) पर
मुस्लिम नाम की माला तो खूब जपती हैं, पर सत्ता में आने के बाद मुसलमानों की
स्थिति को सुधारने के लिए वास्तव में कुछ नहीं करतीं. राजनीतिक पार्टियों की मंशा
तो समझ में आती है, परन्तु चुनावों के वक़्त तो अखबार नवीस, बुद्धिजीवी और चुनावी
आंकड़ों के विशेषज्ञ भी मुस्लिम मन, मुस्लिम निर्णय, मुस्लिम वोट, वक्फ बोर्ड, जामा
मस्जिद और फतवा आदि की बातें खूब-खूब और इस गंभीरता से करने लगते हैं, मानों उम्मीदवारों
व पार्टियों की जीत हार और सरकार बनाने या न बनाने के पीछे सिर्फ मुस्लिम मतदाताओं
की ही निर्णायक भूमिका होती है. बाकी मतदाता तो सिर्फ खाना-पूरी करते हैं. और ऐसा
कर के वे न सिर्फ मुसलमानों की सोच और विचारधारा को सीमित कर देते हैं, बल्कि गैर
मुस्लिमों को सशंकित करके मुसलमानों के खिलाफ खड़ा भी कर देते हैं. कम से कम सोच के
स्तर पर तो ज़रूर ही. और यह एक भावनात्मक समस्या है.
इस तरह आज गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के अलावा इस देश का
मुसलमान भावनात्मक रूप से भी बुरी तरह आहत है. उसकी मुख्या पीड़ा है कि आज उसे शक
की निगाह से देखा जाता है. आज कुल मिला कर उसकी स्थिति यह है कि हिंदुस्तान और पकिस्तान
के बीच होने वाले क्रिकेट मैचों में भी वह चाह कर अच्छे खेल के लिए खुल कर
पकिस्तान की तारीफ नहीं कर सकता. क्योंकि उसे हमेशा यह डर सताता रहता है कि कहीं
उसे पकिस्तान या फिर आई एस आई का एजेंट न मान लिया जाये. ऊपर से आये दिन होने वाले
दंगों के कारण उसका आहत मन अपने आप को काफी असुरक्षित भी महसूस करता है.
संक्षेप में आज देश की आबादी का यह बड़ा हिस्सा छद्म
धर्मनिरपेक्षता का शिकार होकर देश की मुख्य धारा से लगभग कटा हुआ है. लेकिन चुनाव
बाज़ दलों, उनके सिद्धान्तकारों और प्रचारकों द्वारा बार-बार मुस्लिम चर्चाओं का बाज़ार
कुछ इस अंदाज़ में गर्म किया जाता है कि मानों सारी की सारी आर्थिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों की धुरी यहाँ के मुसलमान हों. बेरोजगारी है, तो
मुसलमानों की वजह से. दंगा-फसाद-अशांति और आतंकवाद है तो मुसलमानों की वजह से. सरकारें
बनेंगी तो मुसलमानों की वज़ह से. और गिरेंगी भी तो मुसलमानों के कारण. पर क्या यह
सच है? क्या वाकई इस मुल्क के मुसलमान आज इस स्थिति में हैं कि जिधर चाहें उधर देश
की राजनीति की दिशा को मोड़ दें? क्या वे सिर्फ मुसलमान होने के नाते इतने संगठित
और राजनीतिक रूप से इतने गोलबंद हैं कि यहाँ के समूचे परिदृश्य को संचालित-प्रभावित
कर सकते हैं? क्या सारे के सारे मुसलमान अपने इमामों और मजहबी आकाओं के इशारों पर
नाचने वाले ‘पुतले’ हैं? नहीं, बिलकुल नहीं.
सामाजिक विज्ञान की दृष्टि से भी देखें तो हम पाएंगे कि ऐसा
कत्तई नहीं है. और ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि इस देश में लोग हिन्दू, मुस्लिम और
सिख या फिर बौद्ध और ईसाई के आधार पर गोलबंद हो जायें. और
रोजी-रोटी-नौकरी-भ्रष्टाचार एवं मुकम्मिल आज़ादी की छोटी-बड़ी लड़ाइयों को छोड़कर कोई
अँधा धार्मिक युद्ध शुरू कर दें. न तो इस देश के बहुसंख्यक कभी धर्म के नाम पर
एकजुट और संगठित होंगे और न ही कभी अल्पसंख्यक. क्योंकि यहाँ मुख्य मुद्दा धार्मिक
नहीं है. जिस प्रकार से यहाँ का बहुसंख्य हिन्दू अमीर-गरीब, ऊंच-नीच और छोटे-बड़े-मझोले
वर्गों में बंटा हुआ है, उसी प्रकार से यहाँ के अल्पसंख्यकों के अन्दर भी वर्गीय
विभाजन है. और यहाँ भी कई-कई अंतर्विरोध एक साथ काम कर रहे हैं. मुस्लिम समुदाय के
भीतर भी शिया और सुन्नी, धनी और गरीब, मालिक और नौकर, क्लर्क और मज़दूर के बीच
लम्बी चौड़ी खाई है. इसीलिये न तो यहाँ कभी धार्मिक या जातिगत गोलबंदी हो पायेगी और
न ही जाति और धर्म के आधार पर वोटों का कभी निर्णायक ध्रुवीकरण हो पायेगा. हालाँकि
जन विरोधी ताकतें अरसे से इसके लिए जी जान से जुटी हुयी हैं. पर सफल कत्तई नहीं हो
पा रहीं. क्योंकि हर बार यहाँ के दलित और मुसलमान मात्र थोक वोट बैंक बनने से
इनकार कर देते है. और फतवे आदि अब प्रायः बेअसर साबित होते हैं. और जाति और धर्म के
आधार पर राजनीतिक गोटियाँ सेंकने वालों के मंसूबों पर हर बार पानी फिर जाता है.
वजह साफ़ है. देश की अधिकांश आबादी की तरह लेकिन उनसे भी अधिक
मात्रा में आज मुसलामानों का भी मुख्य मुद्दा रोजी-रोटी-इज्जत और आजादी है. वे भी भावनात्मक
रूप से भयमुक्त हो कर जीना चाहते हैं. वे भी इस देश की मुख्य धारा में शामिल होकर
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव और विकास में अपना योगदान करना चाहते हैं. और इसलिए
उनकी बेहतरी के लिए दो चीज़ें बहुत ज़रूरी हैं. एक तो यह कि मुसलमानों के बीच भी गरीबी,
अशिक्षा, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, दंगों और आतंकवाद के खिलाफ गोलबंदी हो.
उनके बीच से भी इन मुद्दों को लेकर लड़ने वाले धार्मिक नहीं विशुद्ध राजनीतिक
नेतृत्व उभरे. क्योंकि एक सशक्त और सक्रिय राजनीतिक मुस्लिम लीडरशिप के आभाव के
कारण ही आज सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ आसानी से मुस्लिम हितों की अनदेखी करने
में सफल हो रही हैं. लेकिन मुस्लिमों का यह संघर्ष अलग-थलग हो कर या एकला चलो के
सिद्धांत पर चल कर कभी सफल नहीं होगा. इसलिए उनकी तमाम सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक लड़ाइयों को इस देश की बृहत्तर आम जनता की लड़ाइयों के साथ एकरूप और एकजुट भी
होना पड़ेगा.
टिप्पणियाँ
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (25-02-2014) को "मुझे जाने दो" (चर्चा मंच-1534) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'