व्यंग्य
दो गधों की सैर
वार्ता
वे दो गधे थे। और दोनों अब जान-पहचान से आगे बढ़ कर अच्छे दोस्त बन चुके थे। दोनों दिन भर लादी लादते। अपने-अपने मालिक की चाकरी
करते। और शाम को थोड़ा
आराम करने के बाद जब उनके मालिक उन्हें घास चरने के लिए खुला छोड़ देते, तो वे अपने
अपने जंजालों से पिंड छुड़ा कर घास भरे मैदानों की ओर सरपट भाग निकलते। इस तरह उनकी चराई भी हो
जाती। सैर भी। और कुछ देर आपस में बात-चीत
कर लेने से उनका मन हल्का भी हो जाता था। आज भी जब वे रोज़ की तरह मिले, तो रोज़ की औपचारिक की
हाय-हैलो के बाद पहले वाले ने दूसरे से पूछा---“कैसे हो यार?”
---“इसका मतलब है कि तुम अभी भी दुखी चल रहे हो?”
---“हाँ यार, क्या बताऊं? सब कुछ कर के देख लिया, पर मेरी ज़िंदगी में कोई
बदलाव आ ही नहीं रहा। इस बीच ससुरे कितने घूरों के दिन बहुर गए, पर मेरी ज़िंदगी तो वैसी की वैसी ही
है, बल्कि दिन पर दिन और खराब होती जा रही है।
---“तो भाग क्यों नहीं जाते? बहुत मालिक मिल जायेंगे। वैसे भी, आज कल मार्किट में
गधों की कमी चल रही है। मालिकों की नहीं।”
---“यार, भाग तो जाऊं। पर...अच्छा यह बताओ कि यह दुनिया किस चीज़ पर टिकी हुयी है?”
पहले वाला चौंका---“क्या मतलब?”
---“बताओ न, यह दुनिया किस चीज़ पर टिकी हुयी है?”
---“पता नहीं यार, पर इस मसले को लेकर बड़ा कन्फ्यूजन है। कोई कहता है कि दुनिया गाय
की सींग पर टिकी हुयी है। कोई कहता है कि कछुए की पीठ पर। कोई कहता है कि दुनिया शेषनाग के फन पर टिकी हुयी है। और कुछ वैज्ञानिक टाईप के
लोग कहते हैं कि दुनिया गुरुत्वाकर्षण के बल पर टिकी हुयी है।”
---“यह तो बड़ी-बड़ी किताबी बातें हैं...पर मेरा व्यवहारिक ज्ञान तो यह कहता है
कि यह दुनिया केवल और केवल उम्मीद पर टिकी हुयी है। और यह दुनिया ही क्यों? हर
जीती-जागती चीज़ उम्मीद पर ही टिकी हुयी है। मैं भी टिका हुआ हूँ। और सच-सच बताना, तुम भी तो
किसी न किसी उम्मीद पर ही टिके हुए हो? इतना सब कुछ सहने के बावजूद।”
---“हाँ यार, बात तो तुम पते की कह रहे हो़। अगर उम्मीद न होती, तो
एडिसन बल्ब जलाने के काम में यूं जी-जानसे नहीं जुटता। उम्मीद न होती, तो कोलंबस
अमेरिका की खोज नहीं करता। दुनिया मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश में इस तरह दर-दर नहीं भटकती। उम्मीद है, तो दुनिया है। उम्मीद है, तो ज़िंदगी है। उम्मीद नहीं, तो कुछ भी
नहीं। सब गुड़ गोबर। लोग तो उम्मीद टूट जाने के
बाद कभी कभी इतने निराश हो जाते हैं कि आत्महत्या तक कर लेते हैं।”
---“वे कायर होते है...इसीलिये तो मैं जान-बूझ कर इस मालिक की नौकरी नहीं छोड़
रहा। क्योंकि मान लो
मैंने मालिक बदल दिया, तो इस बात की क्या गारंटी कि वह इस वाले मालिक से अच्छा ही
होगा। न मारेगा, न
पीटेगा, न ज्यादा लादी लादेगा और भर पेट खाना भी देगा। देखो न, लोगबाग़ कितनी
उम्मीदों से सरकार बदलते हैं। बड़ी बड़ी उम्मीदें लगा कर नयी सरकार का बाहें फैला कर स्वागत करते हैं। पर अगर वही नयी सरकार भी जब
पुरानी वाली की तरह या उससे भी ज्यादा ख़राब साबित होने लगती है, तो कितना कष्ट
होता है। फिर अगले पांच सालों
तक रोने और आसूं पीने के अलावा कोई कुछ नहीं कर सकता।”
---“हाँ यार, तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो। अपने अच्छे समय, अच्छे दिनों और दिन बहुरने की उम्मीद में
लोग बाग़ कड़ुई से कड़ुई दवाइयां भी खा लेते है। पर जब वह उम्मीदें पूरी
नहीं होती हैं, तो दिल टूटा जाता है। जैसे कि उस बन्दे का टूट गया था।”
---“किस बन्दे का?’’
---“अरे उसी बन्दे का, जिसने ईनाम की उम्मीद में जाड़े की पूरी रात ठन्डे पानी
में नंगे बदन खड़े हो कर गुज़ार दिया था। पर हुआ क्या? बाद में बादशाह सलामत ने उसे बेवक़ूफ़ तो बना
ही दिया।”
---“अच्छा वो? लेकिन यार, बीरबल ने तो बाद में अपनी खिचड़ी वाले प्रयोग से
बादशाह की आँखें खोल दी थीं। और तब बादशाह सलामत ने माफी मंगाते हुए उस बन्दे को घोषित किया हुआ ईनाम दे
दिया था।”
---“पर आज कल बीरबल जैसे लोग कहाँ हैं? आज कल तो हर तरफ अंध भक्त, प्रवक्ता और
प्रचारक भरे पड़े है। आजकल तर्कों से नहीं, कुतर्कों से आम जनता को समझाया जा रहा है।”
---“हैं यार, तर्क वाले लोग भी हैं। पर अभी वे सब नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बने हुए हैं?”
---“खैर छोड़ो। तुमने क्या सोचा है? ऐसे ही चुपचाप मालिक के लात-डंडे खा कर दिन रात रोते रहोगे
या कि ज़िंदगी बदलने के लिए कुछ करोगे भी?”
---“करूंगा। पर अभी नहीं। मैं अभी कुछ दिनों तक और इंतज़ार करूंगा।”
---“किस चीज़ का? क्या तुमको अभी भी उम्मीद है कि तुम्हारा मालिक कुछ दिनों बाद
बदल जायेगा?”
---“नहीं यार, यह बात नहीं है। मैंने तुमको बताया था न? अपनी उस उम्मीद के बारे में।”
---“क्या बताया था?”
---“भूल गए? मैंने बताया था न कि मेरा मालिक जब भी अपनी बेटी से नाराज़ होता
है, तो उसको मारते-पीटते हुए हमेशा धमकाता है कि अगर वह नहीं सुधरी, तो वह उसकी
शादी किसी गधे से कर देगा। और मुझे उम्मीद है कि अगर हालात ऐसे ही रहे, तो एक न एक दिन मैं उस घर का
दामाद ज़रूर बन जाऊँगा। खैर मेरी छोड़ो, अपनी सुनाओ।”
---“मैं तो सोच रहा हूँ कि घोड़ा बन जाऊं।”
---“घोड़ा? पर वह कैसे?”
---“सुना है कि सरकार बाहर से कोई ऐसी टेक्नालौजी इम्पोर्ट कर रही है कि जिससे
गधों को खच्चर बनाये बगैर सीधे घोड़ा बनाया जा सकता है। मैं तो भगवान से रोज़
प्रार्थना कर रहा हूँ कि जल्दी से वह टेकनालौजी आये और मुझे इस नरक से छुटकारा
मिले।”
---“अरे वाह! यह तो बड़ा अच्छा है। चलो, फिर मैं भी कुछ दिन और इंतज़ार करता हूँ। और अगर इस बीच मालिक ने
अपनी कथनी को करनी में नहीं बदला, तो फिर मैं भी तुम्हारे साथ चल कर घोड़ा बन
जाऊंगा।”
@अरविन्द कुमार
मेरा यह व्यंग्य सुशील सिद्धार्थ के सम्पादन में प्रकाशित "व्यंग्य बत्तीसी" में संकलित है)
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