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कहानी

शायद अब वह नहीं आयेगा उस दिन वह अचानक ही मुझसे टकरा गया था। मेरा स्कूटर अस्पताल के छोटे सँकरे गेट के अन्दर दाखिल हो रहा था और उसकी साइकिल तेजी से बाहर निकल रही थी। दोनों अपनी अपनी तेजी में थे। मोड़ पर आपस में भिड़ गये। हम दोनों ने एक दूसरे को चौंक कर देखा। उसनें हड़बड़ा कर नमस्ते की और मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा-'अरे, तुम ? यहां क्या कर रहे हो ? 'आप ही से मिलने आया था ।’ उसने अपनी साइकिल सम्हाली। मुझे रूकने को कहा और करीब आकर कहने लगा-'वाइफ की तबीयत खराब है, जरा किसी बढ़िया लेडी डाक्टर को दिखला दीजिए, प्रेगनेंसी का मामला है। बेचारी सुबह से दर्द से छटपटा रही है। प्लीज हेल्प मी, आई बेग...........।’ वह आदतन एकदम से रूआँसा हो गया। उसके बदहवास चेहरे और याचना के हाव भाव ने मुझे फिर से बाँध लिया। बाध्य होकर मैंने अपने हाँथ का ढाँढस उसके कंधे पर रखा-'जाओ वाइफ को ले आओ, मैं अच्छी तरह से चेकअप करवा दूँगा।’ 'क्या कुछ दवाइयाँ भी मिल जाएंगी ? इधर पैसों की बड़ी तंगी है।’ 'देखूगाँ, पहले उसे लेकर तो आओ।’ वह उछल कर साइकिल पर सवार हो गया। उसके चेहरे से साफ

आज बहुत दिन बाद फ़िर...

वाकई एक अरसा बीत गया। आज काफी दिनों के बाद आप सब से मुखतिब हो रहा हूँ।....तीस मार्च को पिता की अचानक मृत्यु ने मुझे इस कद्र तोड़ दिया था कि कुछ भी लिखने पढ़ने लायक नही रह गया था। गहरा आघात... स्तब्ध और पूर्णतया निशब्द। ...... ठीक होली के दिन वे अचानक बेहोश हो कर इस तरह से गिरे कि सत्रह दिन तक लगातार जीवन और मौत से संघर्ष करते हुए अंततः हार ही गए। ....सघन चिकित्सा,चिकित्सकों की कई-कई टीम, रात दिन एक करके किसी भी कीमत पर पिता को बचा लेने की पुरजोर कोशिश।.....कभी लगता यह मल्टीप्ले ओर्गोन फेल्योर का मामला है, तो कभी सेप्तिसमेया का ।बातें करते हुए मौत के आगोश में इस तरह समा गए कि शायद सोने चले गए हों।....पर वाकई वे गहरी नीद में सो ही तो गए हैं।अब वो पुल्मोनारी एम्बोलिस्म के कारण हुआ हो या अचानक हुए कर्दिअक अरेस्ट के कारण या किसी दवा या इंजेक्शन के ओवर डोज के कारण। सच तो खुदा ही जानता है, पर हमने उनको खो दिया।हम चाह कर भी उनको बचा नही पाए। मृत्यु के सच के आगे हम सब असहाय और नीरीह बने छात्पता कर रह गए।......हम में से किसी को भी सपने में भी अंदाजा नहीं था कि वे अचानक इस तरह से चले जायेंगे

यह सांस्कृतिक सन्नाटा चिंताजनक है--दो

मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के बाद बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों की इस तरह की चुप्पी के चलते अब उन सारे लोगों व समूहों को भी, जो साध्वी-प्रज्ञा तथा पुरोहित प्रकरण के उजागर हो जाने से पहले कुंठाग्रस्त सकते में आ गये थे, यकायक एक ऐसा बड़ा मुद्दा मिल गया, जिससे उनकी सोच व उनके भीतर भरी-दबी जहरीली भॅड़ास खुलकर बाहर निकलने लगी। उनको लगा कि यही वह सुनहरा अवसर है, जब पाकिस्तान को पूरे विश्व समुदाय से काट कर पंगु बना दिया जाये। कई लोग तो सरकार पर दवाब भी डालने लगे कि वह तुरन्त पाकिस्तान पर हमला बोल दे। परन्तु आज के अधिकांश कवि, लेखकों एंव संस्कृतिकर्मियों को इस से क्या ? वे तो इन तमाम कडुवी सच्चाईयों से आँख मूँद कर काल्पनिक घटनाओं और मध्यवर्गीय कुंठाओं को ही अपनी कृतियों में उकेर रहें हैं। वे भी इलेक्ट्रानिक मीडिया के इन्द्रजाल में फँस कर और इंडिया शाइनिंग और भारत निर्माण की तर्ज पर सिर्फ और सिर्फ शहरी विकास, अमीरों की अमीरी और मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग की विलासिता एवं यौन-ग्रन्थियों को ही घुमा-फिरा कर बार-बार पाठकों और दर्शको के सामने परोस रहें है। गरीबों की गरीबी और वंचितों के दुःख दर्द पर

यह सांस्कृतिक सन्नाटा चिंताजनक है--एक

पिछले दिनों मुझे एक नाटक देखने का अवसर मिला। नाटक तो खैर किसी और विषय पर एवं जैसा-तैसा था, पर उसमें एक पात्र था बुद्धिजीवी ! यद्यपि नाटक में उसे हास्य व व्यंग्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए रखा गया था, पर अनायास ही वह पात्र न सिर्फ आज की एक महत्वपूर्ण कड़ु़ई सच्चाई की ओर इशारा करता है, बल्कि जाने-अनजाने उस पर चोट भी करता है। नाटक का वह पात्र किसी भी घटना के बाद एक चिंतक की भाँति मंच पर आता है और घटना से अपनी पूरी निर्लिप्तता दिखाते हुए अपना परिचय कुछ इस तरह से देता है-''मैं एक बुद्धिजीवी हूँ। मेरा काम है, सोचना और केवल सोचना। इसलिए मैं सोचता हूँ और खूब-खूब सोचता हूँ। बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचता हूँ। चाय पीने के पहले सोचता हूँ। चाय पीते हुए सिगरेट के धुएं के डूब कर सोचता हूँ। और खूब सोचता हूँ। मैं दिन भर नहाते-खाते-पीते और अपना काम धंधा करते (यानि की अपने और अपने परिवार के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करते) हुए सोचता हूँ। रात को खाना खाने से पहले सोचता हूँ। खाना खाने के दौरान सोचता हूँ। बीवी व बच्चों के सवाल-जवाब पर हाँ-हूँ करते हुए सोचता हूँ। सोने से पहले भी मैं काफी देर तक सोचता हूँ।

अशिक्षा के अँधियारे के विरुद्ध

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आजकल से बीसेक साल पहले जब मैं स्कूल और कालेज में पढ़ा करता था, तब इम्तहान में नकल करने की पंरपरा नहीं थी। नकलचियों की संख्या कम हुआ करती थी। और छात्र-नौजवान ईमानदारी से अपनी अकल के आधार पर इम्तहान देने में विश्वास करते थे। और नकल करने वालों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा एवं उन्हें जलील किया किया जाता था। पर तब स्कूलों-कालेजों में पढ़ाई होती थी। अध्यापकगण कक्षाओं में पढ़ा-पढ़ा कर कचूमर निकाल देते थे। ट्यूशनों का इतना चलन नहीं था। अध्ययन-मनन-चिंतन का माहौल था। घर पर भी पढ़ाई को लेकर अक्सर पिटाई हो जाती थी। और हर वक्त यह हिदायतें दी जाती थीं, कि चाहे कुछ भी हो जाएं, फेल क्यों न हों, पर नकल कभी मत करना। तब न कहीं नकल विरोधी अध्यादेश था, न नकल रोकने के लिए उड़ाका दल थे। कक्ष निरीक्षक और प्रधानाचार्य का भय ही हमारे लिए काफी हुआ करता था। लेकिन तब विद्यालय वाकई विद्या मंदिर हुआ करते थे। अध्यापक गुरू थे। और शिक्षा ने व्यवसाय का रूप कत्तई नहीं अख्तियार किया था । पर अब परीक्षाओं में की प्रथा-सी चल पड़ी है। नकलचियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। नकल कराने के लिए एजेंसिया खुल गई हैं, जो ठेका लेकर नकल

आज कहाँ खड़ी हैं महिलायें--तीन

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आज भी हकीकत यही है कि दंगे हों तो कहर महिलाओं पर टूटता है। जातीय संघर्ष हो तो महिलाओं को भुगतना पड़ता हैं। आतंकवादियों का जुल्म बरसता है तो महिलाओं पर। पुलिस और सेना भी जब वहशी होती हैं तो भुगतती हैं महिलाएं। प्रेम प्रसंगों में भी प्रताड़ित महिलाएं ही होती है। यही नहीं, जब भारतीय संस्कृति के स्वयभू ठेकेदार अपनी तथाकथित संस्कृति की रक्षा में नैतिक पुलिस बन कर हिंसक होते हैं, तो सब से ज्यादे शिकार महिलायें ही होतीं हैं। चाहे वह हिन्दू धर्म हो या मुस्लिम, ईसाई हो या कि सिख धर्म, या चाहे कोई भी जाति हो या वर्ण हर जगह महिलाओं को ही बलि का बकरा बनाया जाता है। सारे नियम कानून और ढेरों पाबंदियाँ महिलाओं पर ही थोपी जाती हैं। पुरूष हर जगह उनसे ऊपर और आजाद होता है। दूसरी तरफ बाजार में जब खुलापन आता है, तो भी धड़ल्ले से महिलाएं और उनका शरीर ही बेचा और खरीदा जाता है। गरज यह कि सामंती मध्ययुगीन संस्कृति का बोलबाला हो या पश्चिमी अत्याधुनिक भोगवादी संस्कृति का वर्चस्व, शिकार महिलाओं को ही बनाया जाता हैं। चाहे दबाकर जोर जबर्दस्ती से या फिर फुसलाकर और चकाचैंध से भरी जिंदगी का लालच देकर। और हमारे देश में सा

आज कहाँ खड़ी हैं महिलायें--दो

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आज हम एक संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। चारो तरफ तीव्र हलचल, उठा-पटक, बहस-मुबाहिसा, संघर्ष और धुव्रीकरण का माहौल है। अभी कल तक जो था, वह आज नहीं है और आज जो है कि वह कल निश्चित ही नहीं रहेगा। घटनाएं इतनी तेजी से घट रही हैं, दृश्य-परिदृश्य इतनी तेजी से बदलता जा रहा है कि आने वाले कल के बारे में अनुमान करना कतई मुश्किल हो गया है। कंप्यूटर, अत्याधुनिक, तक्नालाजी , मुक्त बाजार, आयातित पश्चिमी पूँजी व संस्कृति और अब यह आर्थिक मंदी का भँवर और गोल और गहरा होता जा रहा है। मूल्य और मान्यताएं रोज-ब-रोज बदलती जा रही है। समय के इस नाजुक मोड़ पर कहाँ खड़े है हम ? कहाँ खड़ी हैं हमारी महिलाएं ? भारतीय नारी ? इसकी जाँच पड़ताल करने और इस संदर्भ में निणर्यात्मक बहुत कुछ ठोस करने की जरूरत आन पड़ी हैं। क्योंकि जब तक इस आधी आबादी से जुड़ी समस्याओं व त्रासदियों को हल नहीं कर लिया जाता, समाज की शक्लो सूरत को कतई नहीं बदला जा सकता। इधर-उधर से पैबंद लगाकर इसे सुधारने की लाख कोशिशें क्यों न कर ली जायें। अपने चारों तरफ आज हम निगाहें दौड़ाते हैं, तो पाते है कि हमारे यहाँ महिलाएं आज भी कमोबोश मध्ययुगीन सोव व संस्कृति तथ

आज कहाँ खड़ी हैं महिलायें--एक

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हिन्द ी क ी सुप्रसिद्ध लेखिक ा डॉक्टर प्रभ ा खेतान क ो हम उनक ी रचनाओ ं " आआ ॓ पेप े घर चले ं ", " पील ी आंध ी ", " छिन्नमस्त ा " , " अपरिचित उजाल े ", " उपनिवेश मे ं स्त्र ी " और विश्व विख्यात अस्तित्ववाद ी चिंतक व लेखक ज्या ं पाल सार्त्र पर लिख ी उनक ी पुस्तको ं स े जानते ं है ं । ल े किन प्रभ ा ज ी क ो सबस े ज्याद ा ख्यात ि फ्रांसीस ी रचनाकार सिमोन द बोउव ा क ी पुस्तक ‘ द ि सेकेंड सेक्स ’ क े अनुवाद ‘ स्त्र ी उपेक्षित ा ’ स े मिली। आज अंतर्राष्ट्रीय महिल ा दिवस क े अवसर पर मै ं इस ी पुस्तक क े लिए लिख ी गई उनक ी भूमिक ा क े अंश क ो यहा ँ प्रस्तुत कर रह ा हू ँ । 1949 मे ं लिख ी गई ' द सैकेण्ड सेक्स ' क े सन्दर्भ मे ं भारतीय स्त्रियो ं क ो लेकर 1989 मे ं लिख े गय े प्रभ ा खेतान क े विचारआज भ ी प्रसंगिक हैं। " हमें बड़ी उदारता से सामान्य स्त्री और उसके परिवेश के बारे में सोचना होगा। सीमोन ने उन्हीं क

यह न्याय है या....

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यह कोई फिल्मी कहानी नहीं है। पर लगती बिल्कुल फिल्मों जैसी है। अशोक राय उर्फ़ अमित नाम के एक तेज-तर्रार और मेधावी लड़के के पास एक लडकी ट्यूशन पढ़ने जाती थी। पढाते-पढाते उस शिक्षक युवक की नीयत ख़राब हो जाती है। और एक दिन धोखे से प्रसाद में नशीला पदार्थ मिलाकर वह उस लडकी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना लेता है। इतना ही नहीं, अशोक राय अब उस लडकी को शादी का झाँसा देकर लगातार उस के साथ महीनों बलात्कार करता है। अपने परिचितों के साथ सोने के लिए उस पर दबाव बनाता है। और जब लडकी गर्भवती हो जाती है, तो उसको माला-डी की गोलियां देकर उसका एबार्शन करने की कोशिश भी करता है। इस ज़लालत और घिन भरी ज़िंदगी से तंग होकर वह लडकी एक दिन आत्महत्या कर लेती है। वर्ष २००३ में राय के खिलाफ दिल्ली के कृष्णा नगर थाने में आई पी सी की धारा ३७६ और ३०६ के तहत बलात्कार व आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज किया जाता है। निचली अदालत अशोक राय को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाती है। और वह जेल भेज दिया जाता है । सब को लगता है की चलो, पीड़ित लडकी को न्याय मिल गया। उसकी मृत-आत्मा को शान्ति मिल गयी। बलात्कार करने और आत्मह

काहे की जय हो ?

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आज कल पूरा देश जय हो- जय हो की जय-जय कार में मदमस्त होकर पागलों की तरह झूम रहा है और ऑस्कर मिलने की खुशी में लोग-बाग़ फूल कर इतना कुप्पा हो रहे हैं कि सच की तरफ़ न तो ख़ुद देखना चाहतें हैं और न दूसरों को देखने-सुनने दे रहे हैं। जश्न मनाने का शोर भाई लोगों ने इतना कनफोरवा कर रखा है कि जब तक कोई कुछ सोच-समझ पाए, तब तक स्लमडॉग मिलिनिअर फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक अपना बिजनेस कर के खूब सारा पैसा यहाँ से बटोर लें जायें। और उनका यह कम खूब असं कर रहे हैं उदार पूंजीवाद और वैश्वीकरण की समर्थक इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया। जी हाँ, यह है बाजारवाद का नया रूप जो अबकी ऑस्कर की शक्ल में हमारे यहाँ आया है। चाहे वह स्लम डॉग मिलिनिअर को हांथों- हाथ उठाने का मसला हो या इस्माईल पिंकी को पुरस्कृत करने की बात हो। इसमें कोई शक नहीं कि ए0 आर0 रहमान एक उच्चकोटि के संगीतकार हैं और गुलजार एक महान गीतकार। उनकी पहचान, प्रतिभा और कला किसी मठ, मंच व कुछ तथाकथित कला-पारखियों की स्वीकृति या प्रमाण-पत्र की मोहताज बिल्कुल नहीं है। उन्होंने दुनिया को अब तक एक से बढकर एक उत्कृष्ट फिल्मी और गैर फिल्मी रचनायें दी हैं।

जी हाँ, नुकसान पहुँचा सकता है मोबाइल फोन

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मोबाइल फोन आज हर आदमी की जरूरत बन गये हैं । बड़े-बूढे, जवान और बच्चे सभी इसका इस्तेमाल धड़ल्ले सेकर रहे हैं । एक अनुमान के अनुसार आज दुनिया भर में पचास करोड़ से ज्यादा लोग मोबाइल फोन के नियमितउपभोक्ता हैं। स्वाभाविक भी हैं इन्फार्मेशन तकनालोजी और दूर-संचार के इस दौर में यह आज की एक बड़ीआवश्यकता बन गयी हैं । इसके फायदे भी बहुत हैं। तुरत-फरत किसी को भी फोन करने सुनने की सुविधा। संदेशभेजने-पाने की सहूलियत। मनचाही आडियो-वीडियो रिकार्डिग। इन्टरनेट, सर्फिग और एफ0 एम0 रेडियो ! परहमें पता होना चाहिए की यह उच्च तकनीक वाला सुविधाजनक व उपयोगी मोबाइल फोन हमें काफी नुकसान भीपहुँचा सकता है। वैज्ञानिकों का मानना हैं कि मोबाइल फोन का अत्याधिक और लम्बे-लम्बे समय तक उपयोग स्वास्थय के लिए काफी हानिकारक हो सकता हैं । हाल ही में हुए कई शोधों से यह बात साबित हुई है कि कम उम्र के बच्चों और युवाओं द्वारा मोबाइल फोन के अंधाधुंध इस्तेमाल से उनको भविष्य में मिरगी, ह्रदय रोग, ब्रेन ट्यूमर, नपुंसकता, कैंसर और अल्झेमर जैसी कई खतरनाक बीमारियाँ हो सकती हैं। दरअसल, मोबाइल फोन से ''नॉन-आयोनाइजिंग'' विकिरण